मूल्य-आय अनुपात का मतलब प्राइस अर्निंग(पीई ) अनुपात से है । यह दरअसल किसी भी शेयर का वैल्यूएशन जानने के लिए सबसे प्राथमिक स्तर का मानक है। दूसरे शब्दों में इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यह अनुपात बताता है कि निवेशक किसी शेयर के लिए उसकी सालाना आय का कितना गुना खर्च करने के लिए तैयार हैं। सीधे शब्दों में किसी शेयर का पीई अनुपात दरअसल वर्षों की संख्या है, जिनमें शेयर का मूल्य लागत का दोगुना हो जाता है। जैसे अगर किसी शेयर का मूल्य किसी खास समय में 100 रुपए है और उसकी आय प्रति शेयर 5 रुपए है, तो इसका मतलब यह है कि उसका पीई अनुपात 20 होगा। यानी अगर सारी परिस्थितियां समान हों तो 100 रुपए के शेयर का दाम 20 साल में दोगुना हो जाएगा। यानी उस शेयर का पीई अनुपात उस खास समय में 20 है।
किसी कंपनी के वैल्यूएशन में पीई का क्या महत्व है?
पीई हमें केवल यह बताता है कि बाजार किसी शेयर पर कितना बुलिश या सकारात्मक है। पीई से अपने आप में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए कुछ दूसरे पीई अनुपातों से इसकी तुलना जरूरी होती है। पहला, तो खुद उस कंपनी का पिछले 5-7 साल का ऐतिहासिक पीई। दूसरा, उसी के क्षेत्र में काम करने वाली दूसरी कंपनियों के पीई अनुपात और तीसरा, बेंचमार्क सूचकांक जैसे सेंसेक्स का पीई अनुपात। किसी कंपनी का पीई बहुत ज्यादा होने से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, कंपनी को उसके सही मूल्य से बहुत ज्यादा भाव मिल रहा है और इसलिए शेयर महंगा है। दूसरा, बाजार को यह पता है कि आने वाले दिनों में इस कंपनी की वृद्घि दर काफी अधिक रहने वाली है और इसलिए उसके लिए ऊंचे भाव पर भी बोली लगाई जा रही है।
ट्रेलिंग पीई और अनुमानित पीई क्या हैं?
ट्रेलिंग पीई किसी शेयर की कीमत और पिछले 12 महीनों की उसकी आय के अनुपात को कहते हैं। इसी तरह अनुमानित पीई अगले 12 महीने की अनुमानित आय प्रति शेयर के आधार पर निकाला जाता है।
पीई से किसी शेयर की सही कीमत कैसे तय करें?
अक्सर किसी कंपनी के लिए सारी परिस्थितियां समान नहीं होतीं। कंपनी की आय हर साल या तो बढ़ती है या घटती है। इसके अलावा कंपनी अगर एफपीओ के जरिए नए शेयर बाजार में लाती है तो उससे शेयरों की कुल संख्या में भी बढ़ोतरी होती है। इन सभी का उसकी आय प्रति शेयर पर असर पड़ता है। अगर किसी कंपनी का ऐतिहासिक पीई पिछले पांच साल से 30 रहा हो और एकाएक बाजार की गिरावट के कारण वह 20 के पीई पर मिल रहा हो, तो वह शेयर सस्ता कहा जाएगा। लेकिन अगर वह कंपनी इंफोसिस हो जिसकी आय पर अमेरिका में संभावित मंदी के कारण असमंजस का माहौल बना हो, तो फिर एक नजर में आप 20 के पीई को सस्ता नहीं कह सकते।
Oct 1, 2010
इक्विटी निवेशकों के लिए क्यों महत्वपूर्ण होते हैं तिमाही नतीजे?
कंपनियों के तिमाही नतीजे घोषित करने का समय फिर आ गया है। इस बार जनवरी से मार्च की चौथी तिमाही का बही-खाता पेश किया जाएगा। इस वित्त वर्ष की तीन तिमाहियां बीत चुकी हैं और इस बार के नतीजे 2008-09 में मंदी के दौरान कंपनियों की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा होंगे। विश्लेषक और निवेशक इनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट जगत पर मंदी के असर की जानकारी इनसे मिलेगी। इसके साथ ही यह भी पता चलेगा कि चुनौती के समय में प्रबंधन ने कितनी कुशलता से कारोबार को आगे बढ़ाया है।
क्या होते हैं तिमाही नतीजे?
तिमाही नतीजों के जरिए कंपनियां तीन महीनों के अपने प्रदर्शन की रिपोर्ट पेश करती हैं। स्टॉक एक्सचेंजों के साथ लिस्टिंग समझौते के तहत नतीजों की घोषणा करना कंपनियों के लिए जरूरी होता है। ये नतीजे जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में सार्वजनिक किए जाते हैं।
तिमाही आमदनी की घोषणाओं में आमतौर पर गैर ऑडिटेड वित्तीय नतीजे, तिमाही में कारोबार की स्थितियां और भविष्य में कारोबारी संभावनाओं का जिक्र होता है। आमदनी की रिपोर्ट में शुद्ध आय, प्रति शेयर आय, जारी कारोबार से आमदनी और शुद्ध बिक्री जैसी मद शामिल होती हैं। इससे कंपनी की वित्तीय स्थिति और कारोबारी माहौल को समझने में मदद मिलती है।
अगली तिमाहियों के अनुमान
कुछ कंपनियां इन नतीजों के साथ भविष्य के लिए अपने अनुमान भी जाहिर करती हैं। इन्हें गाइडेंस कहा जाता है। यह अगली तिमाही और वित्त वर्ष के लिए कारोबार के बारे में प्रबंधन का अनुमान होता है। कंपनी से वित्तीय उम्मीदें तय करने के लिए गाइडेंस हत्वपूर्ण होती है। अगर कंपनी की पिछली गाइडेंस और तिमाही नतीजे मेल खाते हैं तो इससे प्रबंधन की कुशलता का पता चलता है। अगर कंपनी के अनुमान और उसके नतीजों में बड़ा अंतर होता है तो इसका मतलब है कि प्रबंधन पर आप आगे भी ज्यादा भरोसा नहीं कर सकते। इन्हीं अनुमानों के आधार पर छोटी अवधि के निवेशक कई बार किसी कंपनी के शेयर खरीदने या बेचने का फैसला भी करते हैं।
कंपनी के प्रदर्शन का अक्स
तिमाही नतीजे कंपनी के प्रदर्शन का बड़ा संकेत देते हैं। इसी वजह से विश्लेषक और निवेशक इनका इंतजार करते हैं। आमतौर पर विश्लेषक अनुमानों के आधार पर अपनी उम्मीदें जाहिर करते हैं। इन सभी अनुमानों को मिलाकर कंपनी के प्रदर्शन को देखा जाता है। सच्चाई यह है कि आमदनी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है। कंपनी की आय को लेकर ब्रोकरेज हाउस के अनुमान हकीकत से कुछ अधिक हो सकते हैं। कंपनियों के लिए खुद भी इनकी सही भविष्यवाणी करना आसान नहीं होता।
नतीजों के सीजन के लिए निवेश की रणनीति
कंपनियों के नतीजे आने के साथ ही उनके शेयर के दाम पर भी इनका असर दिखने लगता है। अगर नतीजे उम्मीद से बेहतर रहते हैं तो शेयर की कीमत चढ़ती है लेकिन अगर ये अनुमानों से कम या करीब रहते हैं तो इनमें गिरावट भी आ सकती है। अगर किसी कंपनी के आंकड़े लगातार कई तिमाहियों तक उम्मीद से कम रहते हैं तो हो सकता है कि कंपनी समस्याओं का सामना कर रही हो। छोटी अवधि के निवेशक तिमाही नतीजों के आधार पर निवेश की रणनीति तैयार कर सकते हैं।
लंबी अवधि के निवेशक इन्हें देखकर यह अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी कंपनी कैसा कारोबार कर रही है। किसी शेयर को आंकने के लिए उसके पिछले नतीजों को देखना भी जरूरी होता है। अगर प्रबंधन ने वित्त वर्ष की अपनी कारोबारी योजना का खुलासा पहले ही कर दिया है तो तिमाही नतीजों से निवेशक को यह पता चलता है कि योजना किस दिशा में और कितनी गति से बढ़ रही है। निवेशकों को यह भी देखना चाहिए कि कहीं कंपनी ने आंकड़ों में कोई हेरफेर तो नहीं की है। उदाहरण के लिए कोई कंपनी मौजूदा तिमाही की आमदनी को जोड़कर उससे जुड़े खर्चों को अगली तिमाही में दिखाने के साथ अपना अधिक मुनाफा दिखाने की कोशिश कर सकती है। इसके अलावा वह अनुमानों पर पूरा उतरने के लिए तिमाही के अंत में उत्पादों को कम दाम पर भी बेच सकती है। ऐसा होने से कंपनी के वास्तविक प्रदर्शन का संकेत मिल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
निवेशकों को तिमाही आंकड़ों की जानकारी समाचार पत्रों, बिजनेस चैनलों और कंपनी के वेबसाइट पर मिल सकती है।
क्या होते हैं तिमाही नतीजे?
तिमाही नतीजों के जरिए कंपनियां तीन महीनों के अपने प्रदर्शन की रिपोर्ट पेश करती हैं। स्टॉक एक्सचेंजों के साथ लिस्टिंग समझौते के तहत नतीजों की घोषणा करना कंपनियों के लिए जरूरी होता है। ये नतीजे जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में सार्वजनिक किए जाते हैं।
तिमाही आमदनी की घोषणाओं में आमतौर पर गैर ऑडिटेड वित्तीय नतीजे, तिमाही में कारोबार की स्थितियां और भविष्य में कारोबारी संभावनाओं का जिक्र होता है। आमदनी की रिपोर्ट में शुद्ध आय, प्रति शेयर आय, जारी कारोबार से आमदनी और शुद्ध बिक्री जैसी मद शामिल होती हैं। इससे कंपनी की वित्तीय स्थिति और कारोबारी माहौल को समझने में मदद मिलती है।
अगली तिमाहियों के अनुमान
कुछ कंपनियां इन नतीजों के साथ भविष्य के लिए अपने अनुमान भी जाहिर करती हैं। इन्हें गाइडेंस कहा जाता है। यह अगली तिमाही और वित्त वर्ष के लिए कारोबार के बारे में प्रबंधन का अनुमान होता है। कंपनी से वित्तीय उम्मीदें तय करने के लिए गाइडेंस हत्वपूर्ण होती है। अगर कंपनी की पिछली गाइडेंस और तिमाही नतीजे मेल खाते हैं तो इससे प्रबंधन की कुशलता का पता चलता है। अगर कंपनी के अनुमान और उसके नतीजों में बड़ा अंतर होता है तो इसका मतलब है कि प्रबंधन पर आप आगे भी ज्यादा भरोसा नहीं कर सकते। इन्हीं अनुमानों के आधार पर छोटी अवधि के निवेशक कई बार किसी कंपनी के शेयर खरीदने या बेचने का फैसला भी करते हैं।
कंपनी के प्रदर्शन का अक्स
तिमाही नतीजे कंपनी के प्रदर्शन का बड़ा संकेत देते हैं। इसी वजह से विश्लेषक और निवेशक इनका इंतजार करते हैं। आमतौर पर विश्लेषक अनुमानों के आधार पर अपनी उम्मीदें जाहिर करते हैं। इन सभी अनुमानों को मिलाकर कंपनी के प्रदर्शन को देखा जाता है। सच्चाई यह है कि आमदनी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है। कंपनी की आय को लेकर ब्रोकरेज हाउस के अनुमान हकीकत से कुछ अधिक हो सकते हैं। कंपनियों के लिए खुद भी इनकी सही भविष्यवाणी करना आसान नहीं होता।
नतीजों के सीजन के लिए निवेश की रणनीति
कंपनियों के नतीजे आने के साथ ही उनके शेयर के दाम पर भी इनका असर दिखने लगता है। अगर नतीजे उम्मीद से बेहतर रहते हैं तो शेयर की कीमत चढ़ती है लेकिन अगर ये अनुमानों से कम या करीब रहते हैं तो इनमें गिरावट भी आ सकती है। अगर किसी कंपनी के आंकड़े लगातार कई तिमाहियों तक उम्मीद से कम रहते हैं तो हो सकता है कि कंपनी समस्याओं का सामना कर रही हो। छोटी अवधि के निवेशक तिमाही नतीजों के आधार पर निवेश की रणनीति तैयार कर सकते हैं।
लंबी अवधि के निवेशक इन्हें देखकर यह अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी कंपनी कैसा कारोबार कर रही है। किसी शेयर को आंकने के लिए उसके पिछले नतीजों को देखना भी जरूरी होता है। अगर प्रबंधन ने वित्त वर्ष की अपनी कारोबारी योजना का खुलासा पहले ही कर दिया है तो तिमाही नतीजों से निवेशक को यह पता चलता है कि योजना किस दिशा में और कितनी गति से बढ़ रही है। निवेशकों को यह भी देखना चाहिए कि कहीं कंपनी ने आंकड़ों में कोई हेरफेर तो नहीं की है। उदाहरण के लिए कोई कंपनी मौजूदा तिमाही की आमदनी को जोड़कर उससे जुड़े खर्चों को अगली तिमाही में दिखाने के साथ अपना अधिक मुनाफा दिखाने की कोशिश कर सकती है। इसके अलावा वह अनुमानों पर पूरा उतरने के लिए तिमाही के अंत में उत्पादों को कम दाम पर भी बेच सकती है। ऐसा होने से कंपनी के वास्तविक प्रदर्शन का संकेत मिल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
निवेशकों को तिमाही आंकड़ों की जानकारी समाचार पत्रों, बिजनेस चैनलों और कंपनी के वेबसाइट पर मिल सकती है।
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क्या होता है राइट्स इश्यू, शेयर विभाजन और ओपन ऑफर?
राइट्स इश्यू
राइट्स इश्यू के तहत कंपनी रकम जुटाने के लिए मौजूदा शेयरधारकों को नए शेयर जारी करती है। आम तौर पर ये शेयर डिस्काउंट (मौजूदा भाव से कम) पर दिए जाते हैं। शेयरधारकों को उनके पास पहले से मौजूद शेयरों के अनुपात में नए शेयर जारी किए जाते हैं। जैसे, अगर कोई कंपनी 2:5 में राइट्स इश्यू देने की घोषणा करती है, तो शेयरधारक को उस कंपनी के हर पांच शेयर पर दो शेयर खरीदने का अधिकार होगा। राइट्स इश्यू में जारी शेयर सूचीबद्ध होने के बाद आम शेयरों की तरह ही खरीदे-बेचे जा सकते हैं।
शेयर विभाजन
इस प्रक्रिया के तहत एक शेयर को कई शेयरों में विभाजित कर दिया जाता है, जिससे शेयरों का बाजार भाव विभाजन के अनुपात में कम हो जाता है। साथ ही उसका फेस वैल्यू भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। जैसे 10 रुपए फेस वैल्यू वाले शेयर को कंपनी अगर 5:1 में शेयर विभाजित करने की घोषणा करती है और उसका बाजार भाव 2,000 रुपए चल रहा हो, तो एक्स स्प्लिट होने के बाद उसके शेयर का भाव लगभग 400 रुपए पर आ जाएगा और उसका फेस वैल्यू घटकर 2 रुपए हो जाएगा। आम तौर पर कंपनियां अपने शेयरों का कारोबार बढ़ाने के लिए ही शेयर विभाजन का सहारा लेती हैं।
शेयरों की पुनर्खरीद
प्रमोटर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दो तरीके अपनाते हैं। या तो वे खुले बाजार से धीरे-धीरे कर अपनी कंपनी के शेयर खरीदते हैं या फिर मौजूदा शेयरधारकों को एक खास भाव पर अपने शेयर प्रमोटर को बेचने को कहते हैं। दूसरी प्रक्रिया को पुनर्खरीद यानी बाय बैक कहा जाता है। बाय बैक में प्रमोटर एक खास तारीख तक शेयरधारकों को अपने शेयर बेचने का प्रस्ताव करता है। इससे कंपनी में एक ओर तो प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ती है और दूसरी ओर आम जनता की हिस्सेदारी घटती है। इससे शेयर के भाव पर सकारात्मक दबाव पड़ता है। आम तौर पर बाय बैक को कंपनी के लिए काफी अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि उसके प्रमोटरों को अपनी योजनाओं और कंपनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है।
ओपन ऑफर
यह राइट्स इश्यू की ही तरह किसी कंपनी के लिए रकम जुटाने का एक जरिया है, जिसमें कंपनी अपने शेयरधारकों को मौजूदा बाजार भाव से कम पर शेयरों की खरीद के लिए प्रस्ताव करती है। राइट्स इश्यू से यह इस मायने में अलग होता है कि शेयरधारक राइट्स में मिले शेयरों को तुरंत बाजार में बेच सकते हैं, लेकिन ओपन ऑफर में मिले शेयरों को तुरंत नहीं बेचा जा सकता
राइट्स इश्यू के तहत कंपनी रकम जुटाने के लिए मौजूदा शेयरधारकों को नए शेयर जारी करती है। आम तौर पर ये शेयर डिस्काउंट (मौजूदा भाव से कम) पर दिए जाते हैं। शेयरधारकों को उनके पास पहले से मौजूद शेयरों के अनुपात में नए शेयर जारी किए जाते हैं। जैसे, अगर कोई कंपनी 2:5 में राइट्स इश्यू देने की घोषणा करती है, तो शेयरधारक को उस कंपनी के हर पांच शेयर पर दो शेयर खरीदने का अधिकार होगा। राइट्स इश्यू में जारी शेयर सूचीबद्ध होने के बाद आम शेयरों की तरह ही खरीदे-बेचे जा सकते हैं।
शेयर विभाजन
इस प्रक्रिया के तहत एक शेयर को कई शेयरों में विभाजित कर दिया जाता है, जिससे शेयरों का बाजार भाव विभाजन के अनुपात में कम हो जाता है। साथ ही उसका फेस वैल्यू भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। जैसे 10 रुपए फेस वैल्यू वाले शेयर को कंपनी अगर 5:1 में शेयर विभाजित करने की घोषणा करती है और उसका बाजार भाव 2,000 रुपए चल रहा हो, तो एक्स स्प्लिट होने के बाद उसके शेयर का भाव लगभग 400 रुपए पर आ जाएगा और उसका फेस वैल्यू घटकर 2 रुपए हो जाएगा। आम तौर पर कंपनियां अपने शेयरों का कारोबार बढ़ाने के लिए ही शेयर विभाजन का सहारा लेती हैं।
शेयरों की पुनर्खरीद
प्रमोटर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दो तरीके अपनाते हैं। या तो वे खुले बाजार से धीरे-धीरे कर अपनी कंपनी के शेयर खरीदते हैं या फिर मौजूदा शेयरधारकों को एक खास भाव पर अपने शेयर प्रमोटर को बेचने को कहते हैं। दूसरी प्रक्रिया को पुनर्खरीद यानी बाय बैक कहा जाता है। बाय बैक में प्रमोटर एक खास तारीख तक शेयरधारकों को अपने शेयर बेचने का प्रस्ताव करता है। इससे कंपनी में एक ओर तो प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ती है और दूसरी ओर आम जनता की हिस्सेदारी घटती है। इससे शेयर के भाव पर सकारात्मक दबाव पड़ता है। आम तौर पर बाय बैक को कंपनी के लिए काफी अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि उसके प्रमोटरों को अपनी योजनाओं और कंपनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है।
ओपन ऑफर
यह राइट्स इश्यू की ही तरह किसी कंपनी के लिए रकम जुटाने का एक जरिया है, जिसमें कंपनी अपने शेयरधारकों को मौजूदा बाजार भाव से कम पर शेयरों की खरीद के लिए प्रस्ताव करती है। राइट्स इश्यू से यह इस मायने में अलग होता है कि शेयरधारक राइट्स में मिले शेयरों को तुरंत बाजार में बेच सकते हैं, लेकिन ओपन ऑफर में मिले शेयरों को तुरंत नहीं बेचा जा सकता
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टेक्निकल एनालिसिस किस तरह होता है?
टेक्निकल एनालिसिस समझने के लिए सबसे पहले चार्ट को समझने की जरूरत है। चार्ट चार तरह के होते हैं,
लाइन चार्ट, बार चार्ट, कैंडलस्टिक चार्ट और पॉइंट एंड फिगर चार्ट। इनमें बार चार्ट सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और ज्यादातर चार्टिस्ट इसी का इस्तेमाल करते हैं।
बार कैसे तैयार होता है?
बार चार्ट में बहुत सारी लंबवत (वर्टिकल) लकीरें होती हैं, जिन्हें बार कहते हैं। इनमें हर लकीर के दोनों ओर 2 बहुत छोटी-छोटी क्षैतिज लकीरें होती हैं। एक बार में चार सूचनाएं होती हैं। बार का सबसे ऊपरी सिरा, किसी खास दिन पर शेयर का अधिकतम भाव बताता है, जबकि निचला सिरा उसी दिन शेयर के न्यूनतम भाव बताता है। बार के बाईं ओर जो क्षैतिज छोटी रेखा होती है, वह शेयर के खुलने का भाव बताती है और दाईं ओर की क्षैतिज छोटी रेखा शेयर का क्लोजिंग भाव बताती है।
बार चार्ट कैसे तैयार होता है?
दिनों को एक्स अक्ष और भाव को वाई अक्ष पर रख कर हर दिन के लिए एक बार खींचा जाता है और फिर बहुत से बार मिलकर एक चार्ट तैयार करते हैं। इस चार्ट में गिरावट वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा ऊपर हो और दाईं ओर की नीचे) को लाल या काले रंग में दिखाया जाता है और बढ़त वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा, दाईं के मुकाबले नीचे हो) को हरा या सफेद दिखाया जाता है।
टेक्निकल एनालिसिस में वॉल्यूम का क्या महत्व है?
वॉल्यूम यानी कारोबार किए गए शेयरों की संख्या। जैसा कि 18 जून को तकनीकी विश्लेषण की पहली कड़ी में बताया गया था कि टेक्निकल एनालिसिस दरअसल पूरे बाजार के मनोविज्ञान को पढ़ने का एक विज्ञान है। तो स्वाभाविक है कि इस मनोविज्ञान का सही निष्कर्ष केवल तभी निकाला जा सकेगा अगर ज्यादा से ज्यादा लोग भागीदारी कर रहे हों। क्योंकि कम वॉल्यूम वाले शेयरों में अक्सर कीमतों का नियंत्रण कुछ ऑपरेटरों के हाथ में होता है।
लाइन चार्ट, बार चार्ट, कैंडलस्टिक चार्ट और पॉइंट एंड फिगर चार्ट। इनमें बार चार्ट सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और ज्यादातर चार्टिस्ट इसी का इस्तेमाल करते हैं।
बार कैसे तैयार होता है?
बार चार्ट में बहुत सारी लंबवत (वर्टिकल) लकीरें होती हैं, जिन्हें बार कहते हैं। इनमें हर लकीर के दोनों ओर 2 बहुत छोटी-छोटी क्षैतिज लकीरें होती हैं। एक बार में चार सूचनाएं होती हैं। बार का सबसे ऊपरी सिरा, किसी खास दिन पर शेयर का अधिकतम भाव बताता है, जबकि निचला सिरा उसी दिन शेयर के न्यूनतम भाव बताता है। बार के बाईं ओर जो क्षैतिज छोटी रेखा होती है, वह शेयर के खुलने का भाव बताती है और दाईं ओर की क्षैतिज छोटी रेखा शेयर का क्लोजिंग भाव बताती है।
बार चार्ट कैसे तैयार होता है?
दिनों को एक्स अक्ष और भाव को वाई अक्ष पर रख कर हर दिन के लिए एक बार खींचा जाता है और फिर बहुत से बार मिलकर एक चार्ट तैयार करते हैं। इस चार्ट में गिरावट वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा ऊपर हो और दाईं ओर की नीचे) को लाल या काले रंग में दिखाया जाता है और बढ़त वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा, दाईं के मुकाबले नीचे हो) को हरा या सफेद दिखाया जाता है।
टेक्निकल एनालिसिस में वॉल्यूम का क्या महत्व है?
वॉल्यूम यानी कारोबार किए गए शेयरों की संख्या। जैसा कि 18 जून को तकनीकी विश्लेषण की पहली कड़ी में बताया गया था कि टेक्निकल एनालिसिस दरअसल पूरे बाजार के मनोविज्ञान को पढ़ने का एक विज्ञान है। तो स्वाभाविक है कि इस मनोविज्ञान का सही निष्कर्ष केवल तभी निकाला जा सकेगा अगर ज्यादा से ज्यादा लोग भागीदारी कर रहे हों। क्योंकि कम वॉल्यूम वाले शेयरों में अक्सर कीमतों का नियंत्रण कुछ ऑपरेटरों के हाथ में होता है।
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शेयर के फेस वैल्यू पर इसका क्या असर होता है
बोनस के बाद कंपनी का फेस वैल्यू वही रहता है। दरअसल शेयर विभाजन यानी स्टॉक स्प्लिट और बोनस का मुख्य अंतर यही है कि बोनस में शेयर के दाम तो गिर जाते हैं, लेकिन इसके फेस वैल्यू में कोई बदलाव नहीं होता, दूसरी ओर स्प्लिट में फेस वैल्यू का भाव भी उसी अनुपात में कम हो जाता है।
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