वॉशिंगटन. एएए, बीबीबी, सीए, सीसीसी, सी, डी देखने और सुनने में स्कूली बच्चों के रिपोर्ट कार्ड के ग्रेड की तरह लगते हैं। असल में ये भी एक तरह का मूल्यांकन ही हैं। लेकिन, यह स्कूली बच्चों को नहीं मिलता। यह देशों, बड़ी कंपनियों और बड़े पैमाने पर उधार लेने वालों का मूल्यांकन करती है। इस मूल्यांकन पर यह तय होता है कि उधार लेने वाले की माली हालत कैसी है? उसके उधार लौटाने की क्षमता कितनी है? ऐसे में अच्छा ग्रेड मिलने का सीधा मतलब है कम ब्याज पर आसानी से कर्ज लेने की पात्रता हासिल करना। वहीं, खराब मूल्यांकन मिलने पर ऊंची दरों पर बमुश्किल कर्ज मिलता है।
ये हैं बड़े खिलाड़ी : इस समय रेटिंग की दुनिया में तीन बड़े नाम हैं। स्टैण्डर्ड एंड पूअर, मूडीज और फिच। इनमें सबसे पुरानी एजेंसी है स्टैण्डर्ड एंड पूअर। इसकी नींव १८६० में हेनरी पूअर ने रखी थी।पूअर ने अमरीका में नहरों और रेल नेटवर्क के विकास का इतिहास लिखा था। १९०६ में गैर रेल कंपनियों के वित्त की जांच शुरू होने पर स्टैण्डर्ड स्टैटस्टिक ब्यूरो की स्थापना हुई। इन दोनों कंपनियों का १९४० के दशक में विलय हो गया। १९०९ में जॉन मूडी ने मूडीज की स्थापना की। मूडीज ने भी रेल वित्त की साख का विश्लेषण और उनका मूल्यांकन करना शुरू किया। आज दुनिया के रेटिंग व्यवसाय का करीब ४० फीसदी कारोबार इन्हीं दो कंपनियों के पास हैं। फिच इन्हीं दोनों कंपनियों का छोटा रूप है। इसके अलावा भी कई कंपनियां हैं। हालांकि उनके रेटिंग को इतना महत्व नहीं दिया जाता।
महत्व का कारण : स्टैण्डर्ड एंड पूअर, मूडीज और फिच की ग्रेडिंग का इतना महत्वपूर्ण होने का सबसे अहम कारण है अमरीका की वित्तीय निगरानी करने वाली एजेंसी सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन।
१९७५ में इस कमीशन ने इन तीन कंपनियों को मान्यता प्राप्त सांख्यिकीय रेटिंग एजेंसी घोषित किया था। इससे उधार लेने की इच्छुक कंपनियों और देशों का जीवन आसान हो गया। इन एजेंसियों ने उनकी वित्तीय हालत और साख का आकलन कर उन्हें रेटिंग देना शुरू कर दिया। इन रेटिंग एजेंसियों की ताकत तब और बढ़ गई, जब सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन ने आदेश दिया कि सरकारी नियंत्रण वाले निवेश संस्थान केवल ऊंची रेटिंग वाली कंपनियों में ही निवेश करें।
कुछ निवेशकों की रेटिंग गिरने की स्थिति में उनमें किया गया निवेश बेचने का भी निर्देश दिया। इसके कारण जिन कंपनियों या देशों की रेटिंग नीचे गिरती है, उनके लिए बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी हो जाती है।
ऐसे में बड़ी निवेश कंपनियां जब रेटिंग कम होने पर अपने निवेशों को बड़े पैमाने पर निकालना या बेचना शुरू करती है तो उनके बांड की कीमत बाज़ार में और ज्यादा गिर जाती है। इससे उनको मिलने वाले कर्ज पर ब्याज और ज्यादा बढ़ जाता है।
क्या है मतलब?
> एएए : सबसे मजबूत सबसे बेहतर
> एए : वादों को पूरा करने में सक्षम
> ए : वादों को पूरा करने की क्षमता पर विपरीत परिस्थितियों का पड़ सकता है असर
> बीबीबी : वादों को पूरा करने की क्षमता, लेकिन विपरीत परिस्थितियों से आर्थिक हालात प्रभावित होने की ज्यादा गुंजाइश।
> सीसी : वर्तमान में बहुत कमजोर
> डी : उधार लौटाने में असफल
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Aug 7, 2011
Jun 19, 2011
जानिए क्या होती है हाइब्रिड कार
आपने कई लोगों से हाइब्रिड कार के बारे में सुना होगा लेकिन बहुत कम लोग ही जानते हैं कि यह क्या होती है। हाईब्रिड टेक्नोलॉजी से मतलब दो ईधन से चलने से हाईब्रिड कारें पेट्रोल या डीजल और बैट्री की पावर से चलती है दुनिया भर में हाईब्रिड टेक्नोलॉजी को लेकर अलग अलग वाहन बनाए गए हैं इसमें डीजल-बैट्री, पेट्रोल- बेट्री से चलने वाली गाडियां होती है। अगर आपको याद हो तो काफी पहले मोपेड चला करती थी जिसमें पहले पैडल मारते थे उसके बाद वो स्टार्ट होकर चलती थी वो भी एक तरह की हाईब्रिड बाइक थी क्योंकि उसमें शरीर की ताकत और ईधन दोनो इस्तेमाल हो रहे हैं। होंडा सिविक एक हाइब्रिड कार है पैट्रोल और कार की बैट्री दोनो से चलती है ऐसी गाड़ियां ईधन की बचत ज्यादा करती हैं और इनसे प्रदूषण भी काफी कम होता है।
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Mar 2, 2011
जानिए क्या होता है सेक्शन 80डी
आयकर की धारा 80डी के तहत हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी में अदा किए गए प्रीमियम पर आयकर कटौती हासिल होती है। लेकिन सेक्शन 80 डी से जुड़े कई और प्रावधान हैं, जिनपर कर कटौती हासिल होती है। मसलन 80डीडी के तहत आपको अपनी पत्नी, माता-पिता, बच्चे और आश्रित भाई-बहन के इलाज के लिए इंश्योरेंस प्रीमियम पर कर कटौती हासिल होती है। यह राशि 50,000 रुपये तक होती है। अगर किसी कारणवश अपंगता 40 फीसदी है तो 50000 की कटौती मिलती है। लेकिन यह अपंगता 80 फीसदी या ज्यादा है तो एक लाख रुपये की कटौती मिलती है। सेक्शन 80डीडीबी के तहत किसी गंभीर और लंबी बीमारी के इलाज में खर्च की गई रकम पर कर कटौती मिलती है। इनमें कैंसर डिम्नेशिया, पार्किंसंश और एड्स कुछ दूसरी बीमारियां शामिल हैं। सीनियर सिटीजन के मामले में यह कटौती 40,000 रुपये से लेकर 60,000 रुपये तक हो सकती है। कोई आयकर दाता अपने माता-पिता, बच्चे, आश्रित भाई-बहनों और पत्नी के इलाज में खर्च की गई रकम को कटौती के लिए दावा कर सकता है। इसके लिए चिकित्सक से प्रमाणपत्र लेना होता। सरकारी अस्पताल के चिकित्सक से प्रमाणन मान्य है। पूरी इलाज राशि की कटौती के लिए दावा किया जा सकता है।
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जानिए क्या होता है आयकर धारा 80जी
आयकर की धारा 80 जी के तहत कोई भी व्यक्ति किसी फंड्स या चैरिटेबल इंस्टीट्यूशन को दिए गए दान पर कर का छूट ले सकता है। ऐसे मामले में सिर्फ एक ही शर्त है कि आप जिस संस्था का यह दान देते हैं वह सरकार के पास रजिस्टर्ड जरूर हो। ऐसे दान में रकम की कोई नहीं है। हालांकि कर छूट का लाभ केवल कुल दान की रकम के दस फीसदी हिस्से तक ही लिया जा सकता है। आयकर की धारा 80 जी के तहत लाभ लेने के लिए आपको दान की रसीद भी जारी करना पड़ता है। आयकर की धारा 80 की अलग-अलग उपधाराओं में आयकर में छूट मिलता है। इनमें बच्चों की शिक्षा, यूलिप या इंश्योरेंस पॉलिसी के तहत अदा किया गया प्रीमियम भी है। इसके अलावा मेडिकल इंश्योरेंस में अदा किए गए प्रीमियम पर आय कर में छूट क्लेम कर सकते हैं। हालांकि इंश्योरेंस प्रीमियम की रसीदें आयकर कटौती ब्योरे में शामिल करना बेहद जरूरी होता है। बच्चों की फीस में सिर्फ ट्यूशन फीस पर आयकर में छूट मिलती है।
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Jan 14, 2011
मोबाइल बैंकिंग क्या है?
मोबाइल बैंकिंग का सामान्य सा मतलब यह हुआ कि आपका अकाउंट हमेशा आपके साथ-साथ गतिमान रहता है। आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में मोबाइल बैंकिंग आपकी दिक्कतों को कम करने में मददगार साबित हो रही है। खासकर कारोबारियों के लिए तो यह बहुत जरूरी है। कारोबारियों को दिनभर में बहुत सारे ट्रांजक्शन की जरूरत पड़ती है।
अगर वह बैंक जाकर सारा कामकाज करना चाहे तब उसका आधा दिन यूं ही खराब हो जाएगा। दिनभर के व्यस्त कार्यक्रम के दौरान आप कहीं भी खड़े होकर मोबाइल बैंकिंग का लाभ उठा सकते हैं। आप मोबाइल बैंकिंग का लाभ कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में और कभी भी उठा सकते हैं। मोबाइल बैंकिंग आपके मोबाइल के द्वारा एसएमएस या वैप के जरिये ऑपरेट होता है। मोबाइल बैंकिंग का ही एक छोटा सा हिस्सा एसएमएस बैंकिंग है।
आजकल ज्यादातर खाताधारी जिन्होंने मोबाइल बैंकिंग या एसएमएस बैंकिंग के विकल्प का आवेदन दिया होता है, उन्हें एटीएम या अकाउंट से किसी भी प्रकार के लेनदेन की सूचना मोबाइल पर एसएमएस के जरिये उपलब्ध कराई जाती है। इसका सीधा फायदा यह होता है कि आपके अकाउंट में कितनी रकम शेष है और कितना पैसा कहां किस मद में निष्कासित हो रहा है, आपको उसकी पल-पल जानकारी उपलब्ध कराई जाती है।
मोबाइल बैंकिं ग, बैंकिंग सेक्टर में आज की तारीख में बहुत ज्यादा मांग वाली विषयवस्तु है। यह भविष्य में क्रेडिट और डेबिट कार्ड के सिस्टम को हस्तानान्तरित कर देगा। मोबाइल बैंकिंग का इस्तेमाल करने वालों में से 85-90 फीसदी क्रेडिट कार्ड को इस्तेमाल में नहीं लाते हैं। यह ठीक-ठीक एटीएम की तरह ही होता है। यह इस्तेमाल करने में बेहद सुविधाजनक और सस्ता है।
एटीएम की तुलना में इससे बैंक के ऑपरेशनल खर्च में कमी आ जाती है। इसका लाभ बिल पैमेंट करने, फंड ट्रांसफर करने और बैलेंस चेक करने आदि में किया जाता है। कोरिया में मोबाइल फोन में दो सिम का इस्तेमाल किया जाता है। एक सिम टेलीफोन के लिए दूसरा बैंकिंग के लिए। बैंकिंग अकाउंट डाटा स्मार्ट कार्ड चिप पर उपलब्ध होता है। वर्ष 2004 में बैंक ऑफ कोरिया में 33 लाख ट्रांजक्शन मोबाइल बैंकिंग के जरिये हुआ था। जाहिर सी बात है कि इसमें बढ़ोतरी ही हुई होगी।
अगर वह बैंक जाकर सारा कामकाज करना चाहे तब उसका आधा दिन यूं ही खराब हो जाएगा। दिनभर के व्यस्त कार्यक्रम के दौरान आप कहीं भी खड़े होकर मोबाइल बैंकिंग का लाभ उठा सकते हैं। आप मोबाइल बैंकिंग का लाभ कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में और कभी भी उठा सकते हैं। मोबाइल बैंकिंग आपके मोबाइल के द्वारा एसएमएस या वैप के जरिये ऑपरेट होता है। मोबाइल बैंकिंग का ही एक छोटा सा हिस्सा एसएमएस बैंकिंग है।
आजकल ज्यादातर खाताधारी जिन्होंने मोबाइल बैंकिंग या एसएमएस बैंकिंग के विकल्प का आवेदन दिया होता है, उन्हें एटीएम या अकाउंट से किसी भी प्रकार के लेनदेन की सूचना मोबाइल पर एसएमएस के जरिये उपलब्ध कराई जाती है। इसका सीधा फायदा यह होता है कि आपके अकाउंट में कितनी रकम शेष है और कितना पैसा कहां किस मद में निष्कासित हो रहा है, आपको उसकी पल-पल जानकारी उपलब्ध कराई जाती है।
मोबाइल बैंकिं ग, बैंकिंग सेक्टर में आज की तारीख में बहुत ज्यादा मांग वाली विषयवस्तु है। यह भविष्य में क्रेडिट और डेबिट कार्ड के सिस्टम को हस्तानान्तरित कर देगा। मोबाइल बैंकिंग का इस्तेमाल करने वालों में से 85-90 फीसदी क्रेडिट कार्ड को इस्तेमाल में नहीं लाते हैं। यह ठीक-ठीक एटीएम की तरह ही होता है। यह इस्तेमाल करने में बेहद सुविधाजनक और सस्ता है।
एटीएम की तुलना में इससे बैंक के ऑपरेशनल खर्च में कमी आ जाती है। इसका लाभ बिल पैमेंट करने, फंड ट्रांसफर करने और बैलेंस चेक करने आदि में किया जाता है। कोरिया में मोबाइल फोन में दो सिम का इस्तेमाल किया जाता है। एक सिम टेलीफोन के लिए दूसरा बैंकिंग के लिए। बैंकिंग अकाउंट डाटा स्मार्ट कार्ड चिप पर उपलब्ध होता है। वर्ष 2004 में बैंक ऑफ कोरिया में 33 लाख ट्रांजक्शन मोबाइल बैंकिंग के जरिये हुआ था। जाहिर सी बात है कि इसमें बढ़ोतरी ही हुई होगी।
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Oct 1, 2010
वायदा कारोबार क्या होता है?
आपने कभी किसी को कुछ देने का वादा तो किया ही होगा। यह वादा ही इस कारोबार का आधार है। मान लीजिए आपके
पास शेयर खरीदने के लिए पूरे पैसे नहीं हैं, मगर शेयर के दाम काफी नीचे चल रहे हैं। आप क्या करेंगे? आप शेयर बेचने वाले से वादा करते हैं कि कुछ पैसे अभी ले लो, बाकी कुछ दिनों बाद ले लेना। पूरा पैसा देकर, पूरे शेयर ले लूंगा। यही वादा कारोबार है।
आपने 100 शेयर खरीदे। कुल कीमत करीब 10 हजार रुपये है। आपने 10 या 15 फीसदी मार्जिन मनी शेयर बेचने वाले को दे दी। तय हुआ कि 30 दिन बाद आप बाकी रकम दे देंगे। आप जैसे ही पूरी रकम देंगे, शेयर आपके नाम हो जाएगा। इस तरह का कारोबार ही वायदा कारोबार कहलाता है। अब शेयरों के साथ उपभोक्ता वस्तुओं और अमेरिकी डॉलरों का भी वायदा कारोबार शुरू हो गया है। डॉलर का वायदा कारोबार शेयर बाजार में होता है, जबकि उपभोक्ता वस्तुओं का कमोडिटी एक्सचेंजों में।
वायदा का फायदा: पूरा पैसा न होने के बावजूद भी खरीदारी संभव है। इससे बाजार में मनी फ्लो बना रहता है, जिसे तकनीकी भाषा में लिक्विडिटी कहा जाता है। पैसे की कमी के कारण बाजार में कारोबार नहीं रुकता। प्लानिंग करने में आसानी होती है। शेयर अगर नीचे गिर रहे हैं, तो वायदा कारोबार काफी फायदेमंद होता है। आप निचले दामों पर शेयर खरीदकर बाद में बेचने की प्लानिंग कर सकते हैं। अगर आपको तीन माह बाद कारोबार या विदेश जाने के लिए डॉलर की जरूरत है, तो पहले से वायदा कारोबार के जरिए उसे बुक कर सकते हैं। उपभोक्ता वस्तुओं में भी ऐसा किया जा सकता है।
पास शेयर खरीदने के लिए पूरे पैसे नहीं हैं, मगर शेयर के दाम काफी नीचे चल रहे हैं। आप क्या करेंगे? आप शेयर बेचने वाले से वादा करते हैं कि कुछ पैसे अभी ले लो, बाकी कुछ दिनों बाद ले लेना। पूरा पैसा देकर, पूरे शेयर ले लूंगा। यही वादा कारोबार है।
आपने 100 शेयर खरीदे। कुल कीमत करीब 10 हजार रुपये है। आपने 10 या 15 फीसदी मार्जिन मनी शेयर बेचने वाले को दे दी। तय हुआ कि 30 दिन बाद आप बाकी रकम दे देंगे। आप जैसे ही पूरी रकम देंगे, शेयर आपके नाम हो जाएगा। इस तरह का कारोबार ही वायदा कारोबार कहलाता है। अब शेयरों के साथ उपभोक्ता वस्तुओं और अमेरिकी डॉलरों का भी वायदा कारोबार शुरू हो गया है। डॉलर का वायदा कारोबार शेयर बाजार में होता है, जबकि उपभोक्ता वस्तुओं का कमोडिटी एक्सचेंजों में।
वायदा का फायदा: पूरा पैसा न होने के बावजूद भी खरीदारी संभव है। इससे बाजार में मनी फ्लो बना रहता है, जिसे तकनीकी भाषा में लिक्विडिटी कहा जाता है। पैसे की कमी के कारण बाजार में कारोबार नहीं रुकता। प्लानिंग करने में आसानी होती है। शेयर अगर नीचे गिर रहे हैं, तो वायदा कारोबार काफी फायदेमंद होता है। आप निचले दामों पर शेयर खरीदकर बाद में बेचने की प्लानिंग कर सकते हैं। अगर आपको तीन माह बाद कारोबार या विदेश जाने के लिए डॉलर की जरूरत है, तो पहले से वायदा कारोबार के जरिए उसे बुक कर सकते हैं। उपभोक्ता वस्तुओं में भी ऐसा किया जा सकता है।
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लॉट क्या होता है और क्या होती है मार्जिन कॉल?
लॉट क्या होता है?
दरअसल नकद बाजार की तरह वायदा बाजार में कोई भी शेयर मनमानी संख्या में नहीं खरीदा जा सकता। एक्सचेंज यह तय करता है कि कौन सा शेयर कम से कम कितनी संख्या में खरीदा जा सकता है। इसी संख्या को लॉट कहते हैं। वायदा बाजार में कोई भी शेयर लॉट में ही खरीदा जाता है। वैसे तो इस बारे में कोई पक्का नियम नहीं है, लेकिन आम तौर पर एक लॉट शेयरों की कीमत 2 लाख रुपए के आसपास होती है। अभी हाल ही में एनएसई ने शेयरों के लॉट की समीक्षा की और लॉट में संख्या पहले के मुकाबले काफी कम की गई। इसका कारण यही था कि पिछले कुछ सालों की बढ़त के कारण एक-एक लॉट के शेयरों की कीमत 6-7 लाख रुपए तक पहुंच गई थी।
वायदा कारोबार में मार्जिन क्या होता है?
लॉट में शेयर खरीदना जाहिर है काफी महंगा होता है। इसलिए शेयर ब्रोकर अपने ग्राहकों को मार्जिन की सुविधा देते हैं। मार्जिन के तहत शेयरों की साख के लिहाज से एक खास प्रतिशत रकम निवेशक को देनी होती है, जबकि बाकी रकम ब्रोकर निवेशक को देता है। आम तौर पर निवेशकों को अलग-अलग शेयरों के लिहाज से 20-30 फीसदी मार्जिन रखना होता है, जबकि 70-80 फीसदी कर्ज ब्रोकर देता है।
लॉन्ग और शॉर्ट किसे कहते हैं?
लॉन्ग होना यानी कोई शेयर में खरीदारी करना और शॉर्ट करना यानी कोई शेयर आपके पास न हो, लेकिन ब्रोकर से कर्ज लेकर उसे बेचना।
मार्जिन कॉल क्या होती है?
मान लीजिए आपने 5,000 पर एक लॉट निफ्टी अप्रैल लॉन्ग किया। निफ्टी के एक लॉट में 50 इकाइयां होती हैं। यानी आपको पूरे लॉट के लिए 2,50,000 रुपए देने होंगे। अब आपका ब्रोकर आपको 30 फीसदी मार्जिन जमा करने को कहता है यानी आप 50 हजार रुपए जमा करते हैं। दो लाख रुपए ब्रोकर आपके पोजिशन पर आपको कर्ज देता है। अब बाजार गिरने लगा और निफ्टी अप्रैल पहुंच गया 4,000 हजार पर। यानी आपकी पोजिशन रह गई 2,00,000 रुपए की। अब यहां से अगर निफ्टी थोड़ा भी नीचे गया और आपने मार्जिन बढ़ाने से इंकार कर दिया, तो सौदा काटने के बाद भी घाटा ब्रोकर का होगा। ऐसे में जहां निफ्टी 4,100 से नीचे फिसलेगा, आपका ब्रोकर आपको तुरंत मार्जिन जमा कराने को कहेगा। अगर निफ्टी के 4,000 तक आने तक आप रकम नहीं जमा करा सके, तो वह 4,000 पहुंचते ही सौदा काट देगा ताकि उसे दिए गए कर्ज की रकम वापस मिल जाए।
दरअसल नकद बाजार की तरह वायदा बाजार में कोई भी शेयर मनमानी संख्या में नहीं खरीदा जा सकता। एक्सचेंज यह तय करता है कि कौन सा शेयर कम से कम कितनी संख्या में खरीदा जा सकता है। इसी संख्या को लॉट कहते हैं। वायदा बाजार में कोई भी शेयर लॉट में ही खरीदा जाता है। वैसे तो इस बारे में कोई पक्का नियम नहीं है, लेकिन आम तौर पर एक लॉट शेयरों की कीमत 2 लाख रुपए के आसपास होती है। अभी हाल ही में एनएसई ने शेयरों के लॉट की समीक्षा की और लॉट में संख्या पहले के मुकाबले काफी कम की गई। इसका कारण यही था कि पिछले कुछ सालों की बढ़त के कारण एक-एक लॉट के शेयरों की कीमत 6-7 लाख रुपए तक पहुंच गई थी।
वायदा कारोबार में मार्जिन क्या होता है?
लॉट में शेयर खरीदना जाहिर है काफी महंगा होता है। इसलिए शेयर ब्रोकर अपने ग्राहकों को मार्जिन की सुविधा देते हैं। मार्जिन के तहत शेयरों की साख के लिहाज से एक खास प्रतिशत रकम निवेशक को देनी होती है, जबकि बाकी रकम ब्रोकर निवेशक को देता है। आम तौर पर निवेशकों को अलग-अलग शेयरों के लिहाज से 20-30 फीसदी मार्जिन रखना होता है, जबकि 70-80 फीसदी कर्ज ब्रोकर देता है।
लॉन्ग और शॉर्ट किसे कहते हैं?
लॉन्ग होना यानी कोई शेयर में खरीदारी करना और शॉर्ट करना यानी कोई शेयर आपके पास न हो, लेकिन ब्रोकर से कर्ज लेकर उसे बेचना।
मार्जिन कॉल क्या होती है?
मान लीजिए आपने 5,000 पर एक लॉट निफ्टी अप्रैल लॉन्ग किया। निफ्टी के एक लॉट में 50 इकाइयां होती हैं। यानी आपको पूरे लॉट के लिए 2,50,000 रुपए देने होंगे। अब आपका ब्रोकर आपको 30 फीसदी मार्जिन जमा करने को कहता है यानी आप 50 हजार रुपए जमा करते हैं। दो लाख रुपए ब्रोकर आपके पोजिशन पर आपको कर्ज देता है। अब बाजार गिरने लगा और निफ्टी अप्रैल पहुंच गया 4,000 हजार पर। यानी आपकी पोजिशन रह गई 2,00,000 रुपए की। अब यहां से अगर निफ्टी थोड़ा भी नीचे गया और आपने मार्जिन बढ़ाने से इंकार कर दिया, तो सौदा काटने के बाद भी घाटा ब्रोकर का होगा। ऐसे में जहां निफ्टी 4,100 से नीचे फिसलेगा, आपका ब्रोकर आपको तुरंत मार्जिन जमा कराने को कहेगा। अगर निफ्टी के 4,000 तक आने तक आप रकम नहीं जमा करा सके, तो वह 4,000 पहुंचते ही सौदा काट देगा ताकि उसे दिए गए कर्ज की रकम वापस मिल जाए।
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बीएसई पर शेयरों के कितने समूह हैं?
बीएसई पर कारोबार करने वाले शेयरों को ए, बी, टी, एस, टीएस और जेड समूहों में बांटा गया है। इनके अलावा
सिक्योरिटीज के वर्गीकरण के लिए कुछ समूह बनाए गए हैं, जिनमें एफ और जी शामिल हैं।
शेयरों को समूहों में क्यों बांटा जाता है?
आम तौर पर निवेशकों को हर शेयर के बारे पूरी जानकारी नहीं होती। उनकी मदद के लिए ही एक्सचेंज शेयरों को कुछ खास खूबियों या कमियों के आधार पर श्रेणियों में बांट देते हैं, ताकि निवेशकों को निवेश या ट्रेड करते समय उनके बारे में कुछ आधारभूत बातें समझ में आ जाएं।
समूहों में शेयरों का वर्गीकररण किस आधार पर किया जाता है?
शेयरों के वर्गीकरण के लिए उनकी बाजार पूंजी (एम कैप), ट्रेडिंग वॉल्यूम, नतीजे, इतिहास, मुनाफा, लाभांश, हिस्सेदारी और इसी तरह के कुछ मानकों का सहारा लिया जाता है। फरवरी 2008 में बीएसई ने शेयरों के वगीर्करण के लिए तय मानकों को अपडेट किया है।ए समूह के शेयरों को निवेशक और विश्लेषक सबसे भरोसेमंद मानते हैं। इस वर्ग में शामिल किए जाने के लिए जरूरी मानकों में सबसे महत्वपूर्ण बाजार पूंजीकरण है। इस समय ए समूह में कुल 216 शेयर शामिल हैं। एस समूह में बीएसई इंडोनेक्स्ट सूचकांक के शेयरों को शामिल किया गया है। इस सूचकांक का गठन बीएसई ने 7 जनवरी 2005 को किया था। एस ग्रुप में बी समूह के शेयर शामिल होते हैं और इसके अलावा 3 करोड़ रुपए से 30 करोड़ रुपए के बीच की पूंजी वाली कंपनियों, जो केवल क्षेत्रीय एक्सचेंजों में सूचीबद्ध होती हैं, के शेयर भी एस का हिस्सा होते हैं।
जेड समूह में किस तरह के शेयर शामिल हैं?
जेड समूह के शेयर सबसे ज्यादा गैर भरोसेमंद होते हैं। बीएसई ने यह समूह 1999 में बनाया था। इसमें ऐसी कंपनियों के शेयरों को शामिल किया जाता है, जो सूचीबद्ध होते समय एक्सचेंज द्वारा तय नियमों का पालन करने में असफल रहती हैं। इसमें शेयरधारकों की समस्याओं के प्रति उदासीन और अपने शेयरों के डीमैटेरियलाइजेशन के लिए जरूरी प्रबंध करने में नाकाम रहने वाली कंपनियों को भी शामिल किया जाता है। जो शेयर ए, एस और जेड में शामिल नहीं होते, वे बी समूह में होते हैं। मार्च 2008 से पहले इस समूह के शेयर दो समूहों, बी1 और बी2 में बंटे थे, लेकिन अब इन्हें एक ग्रुप बना दिया गया है। टी समूह में वे शेयर होते हैं, जिन्हें ट्रेड-टू-ट्रेड आधार पर ही खरीदा-बेचा जा सकता है। टीएस समूह में उन्हें रखा गया है जो इंडोनेक्स्ट इंडेक्स में शामिल हैं और जिनमें ट्रेड-टू-ट्रेड आधार पर कारोबार होता है। एफ समूह के तहत तय आय वाले सिक्योरिटीज को रखा गया है और जी ग्रुप में सरकारी सिक्योरिटीज रखे जाते हैं।
सिक्योरिटीज के वर्गीकरण के लिए कुछ समूह बनाए गए हैं, जिनमें एफ और जी शामिल हैं।
शेयरों को समूहों में क्यों बांटा जाता है?
आम तौर पर निवेशकों को हर शेयर के बारे पूरी जानकारी नहीं होती। उनकी मदद के लिए ही एक्सचेंज शेयरों को कुछ खास खूबियों या कमियों के आधार पर श्रेणियों में बांट देते हैं, ताकि निवेशकों को निवेश या ट्रेड करते समय उनके बारे में कुछ आधारभूत बातें समझ में आ जाएं।
समूहों में शेयरों का वर्गीकररण किस आधार पर किया जाता है?
शेयरों के वर्गीकरण के लिए उनकी बाजार पूंजी (एम कैप), ट्रेडिंग वॉल्यूम, नतीजे, इतिहास, मुनाफा, लाभांश, हिस्सेदारी और इसी तरह के कुछ मानकों का सहारा लिया जाता है। फरवरी 2008 में बीएसई ने शेयरों के वगीर्करण के लिए तय मानकों को अपडेट किया है।ए समूह के शेयरों को निवेशक और विश्लेषक सबसे भरोसेमंद मानते हैं। इस वर्ग में शामिल किए जाने के लिए जरूरी मानकों में सबसे महत्वपूर्ण बाजार पूंजीकरण है। इस समय ए समूह में कुल 216 शेयर शामिल हैं। एस समूह में बीएसई इंडोनेक्स्ट सूचकांक के शेयरों को शामिल किया गया है। इस सूचकांक का गठन बीएसई ने 7 जनवरी 2005 को किया था। एस ग्रुप में बी समूह के शेयर शामिल होते हैं और इसके अलावा 3 करोड़ रुपए से 30 करोड़ रुपए के बीच की पूंजी वाली कंपनियों, जो केवल क्षेत्रीय एक्सचेंजों में सूचीबद्ध होती हैं, के शेयर भी एस का हिस्सा होते हैं।
जेड समूह में किस तरह के शेयर शामिल हैं?
जेड समूह के शेयर सबसे ज्यादा गैर भरोसेमंद होते हैं। बीएसई ने यह समूह 1999 में बनाया था। इसमें ऐसी कंपनियों के शेयरों को शामिल किया जाता है, जो सूचीबद्ध होते समय एक्सचेंज द्वारा तय नियमों का पालन करने में असफल रहती हैं। इसमें शेयरधारकों की समस्याओं के प्रति उदासीन और अपने शेयरों के डीमैटेरियलाइजेशन के लिए जरूरी प्रबंध करने में नाकाम रहने वाली कंपनियों को भी शामिल किया जाता है। जो शेयर ए, एस और जेड में शामिल नहीं होते, वे बी समूह में होते हैं। मार्च 2008 से पहले इस समूह के शेयर दो समूहों, बी1 और बी2 में बंटे थे, लेकिन अब इन्हें एक ग्रुप बना दिया गया है। टी समूह में वे शेयर होते हैं, जिन्हें ट्रेड-टू-ट्रेड आधार पर ही खरीदा-बेचा जा सकता है। टीएस समूह में उन्हें रखा गया है जो इंडोनेक्स्ट इंडेक्स में शामिल हैं और जिनमें ट्रेड-टू-ट्रेड आधार पर कारोबार होता है। एफ समूह के तहत तय आय वाले सिक्योरिटीज को रखा गया है और जी ग्रुप में सरकारी सिक्योरिटीज रखे जाते हैं।
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क्या है पीई रेश्यो?
मूल्य-आय अनुपात का मतलब प्राइस अर्निंग(पीई ) अनुपात से है । यह दरअसल किसी भी शेयर का वैल्यूएशन जानने के लिए सबसे प्राथमिक स्तर का मानक है। दूसरे शब्दों में इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यह अनुपात बताता है कि निवेशक किसी शेयर के लिए उसकी सालाना आय का कितना गुना खर्च करने के लिए तैयार हैं। सीधे शब्दों में किसी शेयर का पीई अनुपात दरअसल वर्षों की संख्या है, जिनमें शेयर का मूल्य लागत का दोगुना हो जाता है। जैसे अगर किसी शेयर का मूल्य किसी खास समय में 100 रुपए है और उसकी आय प्रति शेयर 5 रुपए है, तो इसका मतलब यह है कि उसका पीई अनुपात 20 होगा। यानी अगर सारी परिस्थितियां समान हों तो 100 रुपए के शेयर का दाम 20 साल में दोगुना हो जाएगा। यानी उस शेयर का पीई अनुपात उस खास समय में 20 है।
किसी कंपनी के वैल्यूएशन में पीई का क्या महत्व है?
पीई हमें केवल यह बताता है कि बाजार किसी शेयर पर कितना बुलिश या सकारात्मक है। पीई से अपने आप में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए कुछ दूसरे पीई अनुपातों से इसकी तुलना जरूरी होती है। पहला, तो खुद उस कंपनी का पिछले 5-7 साल का ऐतिहासिक पीई। दूसरा, उसी के क्षेत्र में काम करने वाली दूसरी कंपनियों के पीई अनुपात और तीसरा, बेंचमार्क सूचकांक जैसे सेंसेक्स का पीई अनुपात। किसी कंपनी का पीई बहुत ज्यादा होने से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, कंपनी को उसके सही मूल्य से बहुत ज्यादा भाव मिल रहा है और इसलिए शेयर महंगा है। दूसरा, बाजार को यह पता है कि आने वाले दिनों में इस कंपनी की वृद्घि दर काफी अधिक रहने वाली है और इसलिए उसके लिए ऊंचे भाव पर भी बोली लगाई जा रही है।
ट्रेलिंग पीई और अनुमानित पीई क्या हैं?
ट्रेलिंग पीई किसी शेयर की कीमत और पिछले 12 महीनों की उसकी आय के अनुपात को कहते हैं। इसी तरह अनुमानित पीई अगले 12 महीने की अनुमानित आय प्रति शेयर के आधार पर निकाला जाता है।
पीई से किसी शेयर की सही कीमत कैसे तय करें?
अक्सर किसी कंपनी के लिए सारी परिस्थितियां समान नहीं होतीं। कंपनी की आय हर साल या तो बढ़ती है या घटती है। इसके अलावा कंपनी अगर एफपीओ के जरिए नए शेयर बाजार में लाती है तो उससे शेयरों की कुल संख्या में भी बढ़ोतरी होती है। इन सभी का उसकी आय प्रति शेयर पर असर पड़ता है। अगर किसी कंपनी का ऐतिहासिक पीई पिछले पांच साल से 30 रहा हो और एकाएक बाजार की गिरावट के कारण वह 20 के पीई पर मिल रहा हो, तो वह शेयर सस्ता कहा जाएगा। लेकिन अगर वह कंपनी इंफोसिस हो जिसकी आय पर अमेरिका में संभावित मंदी के कारण असमंजस का माहौल बना हो, तो फिर एक नजर में आप 20 के पीई को सस्ता नहीं कह सकते।
किसी कंपनी के वैल्यूएशन में पीई का क्या महत्व है?
पीई हमें केवल यह बताता है कि बाजार किसी शेयर पर कितना बुलिश या सकारात्मक है। पीई से अपने आप में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए कुछ दूसरे पीई अनुपातों से इसकी तुलना जरूरी होती है। पहला, तो खुद उस कंपनी का पिछले 5-7 साल का ऐतिहासिक पीई। दूसरा, उसी के क्षेत्र में काम करने वाली दूसरी कंपनियों के पीई अनुपात और तीसरा, बेंचमार्क सूचकांक जैसे सेंसेक्स का पीई अनुपात। किसी कंपनी का पीई बहुत ज्यादा होने से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, कंपनी को उसके सही मूल्य से बहुत ज्यादा भाव मिल रहा है और इसलिए शेयर महंगा है। दूसरा, बाजार को यह पता है कि आने वाले दिनों में इस कंपनी की वृद्घि दर काफी अधिक रहने वाली है और इसलिए उसके लिए ऊंचे भाव पर भी बोली लगाई जा रही है।
ट्रेलिंग पीई और अनुमानित पीई क्या हैं?
ट्रेलिंग पीई किसी शेयर की कीमत और पिछले 12 महीनों की उसकी आय के अनुपात को कहते हैं। इसी तरह अनुमानित पीई अगले 12 महीने की अनुमानित आय प्रति शेयर के आधार पर निकाला जाता है।
पीई से किसी शेयर की सही कीमत कैसे तय करें?
अक्सर किसी कंपनी के लिए सारी परिस्थितियां समान नहीं होतीं। कंपनी की आय हर साल या तो बढ़ती है या घटती है। इसके अलावा कंपनी अगर एफपीओ के जरिए नए शेयर बाजार में लाती है तो उससे शेयरों की कुल संख्या में भी बढ़ोतरी होती है। इन सभी का उसकी आय प्रति शेयर पर असर पड़ता है। अगर किसी कंपनी का ऐतिहासिक पीई पिछले पांच साल से 30 रहा हो और एकाएक बाजार की गिरावट के कारण वह 20 के पीई पर मिल रहा हो, तो वह शेयर सस्ता कहा जाएगा। लेकिन अगर वह कंपनी इंफोसिस हो जिसकी आय पर अमेरिका में संभावित मंदी के कारण असमंजस का माहौल बना हो, तो फिर एक नजर में आप 20 के पीई को सस्ता नहीं कह सकते।
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क्या होता है राइट्स इश्यू, शेयर विभाजन और ओपन ऑफर?
राइट्स इश्यू
राइट्स इश्यू के तहत कंपनी रकम जुटाने के लिए मौजूदा शेयरधारकों को नए शेयर जारी करती है। आम तौर पर ये शेयर डिस्काउंट (मौजूदा भाव से कम) पर दिए जाते हैं। शेयरधारकों को उनके पास पहले से मौजूद शेयरों के अनुपात में नए शेयर जारी किए जाते हैं। जैसे, अगर कोई कंपनी 2:5 में राइट्स इश्यू देने की घोषणा करती है, तो शेयरधारक को उस कंपनी के हर पांच शेयर पर दो शेयर खरीदने का अधिकार होगा। राइट्स इश्यू में जारी शेयर सूचीबद्ध होने के बाद आम शेयरों की तरह ही खरीदे-बेचे जा सकते हैं।
शेयर विभाजन
इस प्रक्रिया के तहत एक शेयर को कई शेयरों में विभाजित कर दिया जाता है, जिससे शेयरों का बाजार भाव विभाजन के अनुपात में कम हो जाता है। साथ ही उसका फेस वैल्यू भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। जैसे 10 रुपए फेस वैल्यू वाले शेयर को कंपनी अगर 5:1 में शेयर विभाजित करने की घोषणा करती है और उसका बाजार भाव 2,000 रुपए चल रहा हो, तो एक्स स्प्लिट होने के बाद उसके शेयर का भाव लगभग 400 रुपए पर आ जाएगा और उसका फेस वैल्यू घटकर 2 रुपए हो जाएगा। आम तौर पर कंपनियां अपने शेयरों का कारोबार बढ़ाने के लिए ही शेयर विभाजन का सहारा लेती हैं।
शेयरों की पुनर्खरीद
प्रमोटर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दो तरीके अपनाते हैं। या तो वे खुले बाजार से धीरे-धीरे कर अपनी कंपनी के शेयर खरीदते हैं या फिर मौजूदा शेयरधारकों को एक खास भाव पर अपने शेयर प्रमोटर को बेचने को कहते हैं। दूसरी प्रक्रिया को पुनर्खरीद यानी बाय बैक कहा जाता है। बाय बैक में प्रमोटर एक खास तारीख तक शेयरधारकों को अपने शेयर बेचने का प्रस्ताव करता है। इससे कंपनी में एक ओर तो प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ती है और दूसरी ओर आम जनता की हिस्सेदारी घटती है। इससे शेयर के भाव पर सकारात्मक दबाव पड़ता है। आम तौर पर बाय बैक को कंपनी के लिए काफी अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि उसके प्रमोटरों को अपनी योजनाओं और कंपनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है।
ओपन ऑफर
यह राइट्स इश्यू की ही तरह किसी कंपनी के लिए रकम जुटाने का एक जरिया है, जिसमें कंपनी अपने शेयरधारकों को मौजूदा बाजार भाव से कम पर शेयरों की खरीद के लिए प्रस्ताव करती है। राइट्स इश्यू से यह इस मायने में अलग होता है कि शेयरधारक राइट्स में मिले शेयरों को तुरंत बाजार में बेच सकते हैं, लेकिन ओपन ऑफर में मिले शेयरों को तुरंत नहीं बेचा जा सकता
राइट्स इश्यू के तहत कंपनी रकम जुटाने के लिए मौजूदा शेयरधारकों को नए शेयर जारी करती है। आम तौर पर ये शेयर डिस्काउंट (मौजूदा भाव से कम) पर दिए जाते हैं। शेयरधारकों को उनके पास पहले से मौजूद शेयरों के अनुपात में नए शेयर जारी किए जाते हैं। जैसे, अगर कोई कंपनी 2:5 में राइट्स इश्यू देने की घोषणा करती है, तो शेयरधारक को उस कंपनी के हर पांच शेयर पर दो शेयर खरीदने का अधिकार होगा। राइट्स इश्यू में जारी शेयर सूचीबद्ध होने के बाद आम शेयरों की तरह ही खरीदे-बेचे जा सकते हैं।
शेयर विभाजन
इस प्रक्रिया के तहत एक शेयर को कई शेयरों में विभाजित कर दिया जाता है, जिससे शेयरों का बाजार भाव विभाजन के अनुपात में कम हो जाता है। साथ ही उसका फेस वैल्यू भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। जैसे 10 रुपए फेस वैल्यू वाले शेयर को कंपनी अगर 5:1 में शेयर विभाजित करने की घोषणा करती है और उसका बाजार भाव 2,000 रुपए चल रहा हो, तो एक्स स्प्लिट होने के बाद उसके शेयर का भाव लगभग 400 रुपए पर आ जाएगा और उसका फेस वैल्यू घटकर 2 रुपए हो जाएगा। आम तौर पर कंपनियां अपने शेयरों का कारोबार बढ़ाने के लिए ही शेयर विभाजन का सहारा लेती हैं।
शेयरों की पुनर्खरीद
प्रमोटर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दो तरीके अपनाते हैं। या तो वे खुले बाजार से धीरे-धीरे कर अपनी कंपनी के शेयर खरीदते हैं या फिर मौजूदा शेयरधारकों को एक खास भाव पर अपने शेयर प्रमोटर को बेचने को कहते हैं। दूसरी प्रक्रिया को पुनर्खरीद यानी बाय बैक कहा जाता है। बाय बैक में प्रमोटर एक खास तारीख तक शेयरधारकों को अपने शेयर बेचने का प्रस्ताव करता है। इससे कंपनी में एक ओर तो प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ती है और दूसरी ओर आम जनता की हिस्सेदारी घटती है। इससे शेयर के भाव पर सकारात्मक दबाव पड़ता है। आम तौर पर बाय बैक को कंपनी के लिए काफी अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि उसके प्रमोटरों को अपनी योजनाओं और कंपनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है।
ओपन ऑफर
यह राइट्स इश्यू की ही तरह किसी कंपनी के लिए रकम जुटाने का एक जरिया है, जिसमें कंपनी अपने शेयरधारकों को मौजूदा बाजार भाव से कम पर शेयरों की खरीद के लिए प्रस्ताव करती है। राइट्स इश्यू से यह इस मायने में अलग होता है कि शेयरधारक राइट्स में मिले शेयरों को तुरंत बाजार में बेच सकते हैं, लेकिन ओपन ऑफर में मिले शेयरों को तुरंत नहीं बेचा जा सकता
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टेक्निकल एनालिसिस किस तरह होता है?
टेक्निकल एनालिसिस समझने के लिए सबसे पहले चार्ट को समझने की जरूरत है। चार्ट चार तरह के होते हैं,
लाइन चार्ट, बार चार्ट, कैंडलस्टिक चार्ट और पॉइंट एंड फिगर चार्ट। इनमें बार चार्ट सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और ज्यादातर चार्टिस्ट इसी का इस्तेमाल करते हैं।
बार कैसे तैयार होता है?
बार चार्ट में बहुत सारी लंबवत (वर्टिकल) लकीरें होती हैं, जिन्हें बार कहते हैं। इनमें हर लकीर के दोनों ओर 2 बहुत छोटी-छोटी क्षैतिज लकीरें होती हैं। एक बार में चार सूचनाएं होती हैं। बार का सबसे ऊपरी सिरा, किसी खास दिन पर शेयर का अधिकतम भाव बताता है, जबकि निचला सिरा उसी दिन शेयर के न्यूनतम भाव बताता है। बार के बाईं ओर जो क्षैतिज छोटी रेखा होती है, वह शेयर के खुलने का भाव बताती है और दाईं ओर की क्षैतिज छोटी रेखा शेयर का क्लोजिंग भाव बताती है।
बार चार्ट कैसे तैयार होता है?
दिनों को एक्स अक्ष और भाव को वाई अक्ष पर रख कर हर दिन के लिए एक बार खींचा जाता है और फिर बहुत से बार मिलकर एक चार्ट तैयार करते हैं। इस चार्ट में गिरावट वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा ऊपर हो और दाईं ओर की नीचे) को लाल या काले रंग में दिखाया जाता है और बढ़त वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा, दाईं के मुकाबले नीचे हो) को हरा या सफेद दिखाया जाता है।
टेक्निकल एनालिसिस में वॉल्यूम का क्या महत्व है?
वॉल्यूम यानी कारोबार किए गए शेयरों की संख्या। जैसा कि 18 जून को तकनीकी विश्लेषण की पहली कड़ी में बताया गया था कि टेक्निकल एनालिसिस दरअसल पूरे बाजार के मनोविज्ञान को पढ़ने का एक विज्ञान है। तो स्वाभाविक है कि इस मनोविज्ञान का सही निष्कर्ष केवल तभी निकाला जा सकेगा अगर ज्यादा से ज्यादा लोग भागीदारी कर रहे हों। क्योंकि कम वॉल्यूम वाले शेयरों में अक्सर कीमतों का नियंत्रण कुछ ऑपरेटरों के हाथ में होता है।
लाइन चार्ट, बार चार्ट, कैंडलस्टिक चार्ट और पॉइंट एंड फिगर चार्ट। इनमें बार चार्ट सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और ज्यादातर चार्टिस्ट इसी का इस्तेमाल करते हैं।
बार कैसे तैयार होता है?
बार चार्ट में बहुत सारी लंबवत (वर्टिकल) लकीरें होती हैं, जिन्हें बार कहते हैं। इनमें हर लकीर के दोनों ओर 2 बहुत छोटी-छोटी क्षैतिज लकीरें होती हैं। एक बार में चार सूचनाएं होती हैं। बार का सबसे ऊपरी सिरा, किसी खास दिन पर शेयर का अधिकतम भाव बताता है, जबकि निचला सिरा उसी दिन शेयर के न्यूनतम भाव बताता है। बार के बाईं ओर जो क्षैतिज छोटी रेखा होती है, वह शेयर के खुलने का भाव बताती है और दाईं ओर की क्षैतिज छोटी रेखा शेयर का क्लोजिंग भाव बताती है।
बार चार्ट कैसे तैयार होता है?
दिनों को एक्स अक्ष और भाव को वाई अक्ष पर रख कर हर दिन के लिए एक बार खींचा जाता है और फिर बहुत से बार मिलकर एक चार्ट तैयार करते हैं। इस चार्ट में गिरावट वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा ऊपर हो और दाईं ओर की नीचे) को लाल या काले रंग में दिखाया जाता है और बढ़त वाले दिनों (यानी जब बाईं ओर की क्षैतिज रेखा, दाईं के मुकाबले नीचे हो) को हरा या सफेद दिखाया जाता है।
टेक्निकल एनालिसिस में वॉल्यूम का क्या महत्व है?
वॉल्यूम यानी कारोबार किए गए शेयरों की संख्या। जैसा कि 18 जून को तकनीकी विश्लेषण की पहली कड़ी में बताया गया था कि टेक्निकल एनालिसिस दरअसल पूरे बाजार के मनोविज्ञान को पढ़ने का एक विज्ञान है। तो स्वाभाविक है कि इस मनोविज्ञान का सही निष्कर्ष केवल तभी निकाला जा सकेगा अगर ज्यादा से ज्यादा लोग भागीदारी कर रहे हों। क्योंकि कम वॉल्यूम वाले शेयरों में अक्सर कीमतों का नियंत्रण कुछ ऑपरेटरों के हाथ में होता है।
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शेयर के फेस वैल्यू पर इसका क्या असर होता है
बोनस के बाद कंपनी का फेस वैल्यू वही रहता है। दरअसल शेयर विभाजन यानी स्टॉक स्प्लिट और बोनस का मुख्य अंतर यही है कि बोनस में शेयर के दाम तो गिर जाते हैं, लेकिन इसके फेस वैल्यू में कोई बदलाव नहीं होता, दूसरी ओर स्प्लिट में फेस वैल्यू का भाव भी उसी अनुपात में कम हो जाता है।
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बोनस इश्यू क्या होता है?
जब शेयरधारकों को अपने पास मौजूद शेयरों के एक खास अनुपात में मुफ्त शेयर मिलते हैं, तो उसे बोनस इश्यू कहते हैं। जैसे अगर कोई कंपनी 2:5 का बोनस जारी करती है तो इसका मतलब आपके पास मौजूद हर पांच शेयर पर आपको 2 मुफ्त शेयर मिलेंगे।
कंपनिया क्यों जारी करती हैं बोनस इश्यू?:
जब कंपनियों के पास नकद रिजर्व बहुत ज्यादा हो जाता है, तो कंपनियां बोनस इश्यू जारी करती हैं। इससे कंपनी डिविडेंड के तौर पर अपने शेयरधारकों को ज्यादा रकम देती है। दूसरे शब्दों में कंपनी के नकद रिजर्व का बड़ा हिस्सा कंपनी के बही-खाते से निकलकर प्रमोटर के निजी खाते में आ जाता है, क्योंकि कंपनी का सबसे बड़ा शेयरधारक अमूमन उसका प्रमोटर ही होता है।
कंपनिया क्यों जारी करती हैं बोनस इश्यू?:
जब कंपनियों के पास नकद रिजर्व बहुत ज्यादा हो जाता है, तो कंपनियां बोनस इश्यू जारी करती हैं। इससे कंपनी डिविडेंड के तौर पर अपने शेयरधारकों को ज्यादा रकम देती है। दूसरे शब्दों में कंपनी के नकद रिजर्व का बड़ा हिस्सा कंपनी के बही-खाते से निकलकर प्रमोटर के निजी खाते में आ जाता है, क्योंकि कंपनी का सबसे बड़ा शेयरधारक अमूमन उसका प्रमोटर ही होता है।
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Sep 28, 2010
डोंगल (Dongle) क्या होता hai
डोंगल वर्ड आपने कई बार सुना होगा। दरअसल डोंगल एक छोटी यूएसबी ड्राइव होती है जिसे कंप्यूटर से कनेक्ट करके सेफली कोई सॉफ्टवेयर रन करवाया जा सकता है। जहां सिक्योरिटी की जरूरत सर्वाधिक होती है वहीं इसे यूज किया जाता है। डोंगल का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है ताकि गैरकानूनी ढंग से सॉफ्टवेयर चोरी न हो।
लेटेस्ट टेक्नॉलॉजी बेस्ड डोंगल फ्लैश ड्राइव की तरह आसानी से कैरी किए जा सकते हैं। डोंगल को पहली बार 1980 में वर्डक्राफ्ट प्रोग्राम पर यूज किया गया था।
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Sep 27, 2010
मुनाफा कमाने वाले शेयरों की पहचान करने का मंत्र
संस्थागत निवेशक आम निवेशकों की
ओर से होने वाली खरीद-फरोख्त पर बड़ा असर डालते हैं, क्योंकि उनके पास ऑर्डर को सपोर्ट करने के लिए ज्यादा पैसा होता है और इससे शेयर पर पड़ने वाला प्रभाव और भी बढ़ जाता है।' वॉल स्ट्रीट के एक जाने-माने कमेंटेटर के ये शब्द इक्विटी बाजारों में संस्थागत निवेशकों की अहमियत रेखांकित करते हैं। संस्थागत निवेशक बाजार के अच्छे विश्लेषकों को आसानी से अपने साथ जोड़ लेते हैं और निवेश संबंधी शोध तक भी उनकी अच्छी पहुंच होती है। इसके चलते जब भी मल्टी-बैगर शेयर तलाशने की बारी आती है तो वे दूसरों से आगे नजर आते हैं।
इसके अलावा ज्यादातर मामलों में ये निवेशक लंबे वक्त तक अपनी पोजीशन बरकरार रखते हैं। इसलिए यह जानना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि संस्थागत निवेशक किन शेयरों की खरीद कर रहे हैं और कौन से शेयर उनकी प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। छोटे निवेशकों को सर्तकता तो बरतनी चाहिए और निवेश का कोई भी फैसला करने से पहले पर्याप्त होमवर्क कर ही लेना चाहिए, लेकिन अगर वे इसके साथ संस्थागत गतिविधियों पर भी एक नजर डाल लें तो उन्हें निवेश के बुनियादी विचार की झलक मिल जाएगी।
संस्थागत निवेशक मोटे तौर पर म्यूचुअल फंड, बीमा और पेंशन प्रोवाइडर पर ध्यान केंद्रित करते हैं। बीते कुछ वर्षों से भारतीय इक्विटी में संस्थागत निवेशकों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के आंकड़ों के मुताबिक, अगस्त 2010 को खत्म हुए आठ महीनों में उन्होंने 59,724 करोड़ रुपए की खरीदारी की है। यह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 48 फीसदी ज्यादा है। आमतौर पर रिसर्च पर उनका काफी फोकस होता है और निवेश की उनकी रणनीति मध्यम से लंबी अवधि के लिए होती है।
इसका मतलब यह हुआ कि वे उन्हीं शेयरों में निवेश करते हैं जिनमें मध्यम अवधि के लिए वृद्धि की अच्छी संभावना हो। छोटा निवेशक कंपनी के भावी कारोबार से डिस्काउंटेड कैश फ्लो (डीसीएफ) जैसी निवेश की आधुनिक तकनीकों से परिचित नहीं होता। इसलिए लंबी अवधि के निवेश के लिए संस्थागत निवेशकों के निवेश के चलन पर निगाह बनाए रखना ज्यादा सरल तरीका है।
ओर से होने वाली खरीद-फरोख्त पर बड़ा असर डालते हैं, क्योंकि उनके पास ऑर्डर को सपोर्ट करने के लिए ज्यादा पैसा होता है और इससे शेयर पर पड़ने वाला प्रभाव और भी बढ़ जाता है।' वॉल स्ट्रीट के एक जाने-माने कमेंटेटर के ये शब्द इक्विटी बाजारों में संस्थागत निवेशकों की अहमियत रेखांकित करते हैं। संस्थागत निवेशक बाजार के अच्छे विश्लेषकों को आसानी से अपने साथ जोड़ लेते हैं और निवेश संबंधी शोध तक भी उनकी अच्छी पहुंच होती है। इसके चलते जब भी मल्टी-बैगर शेयर तलाशने की बारी आती है तो वे दूसरों से आगे नजर आते हैं।
इसके अलावा ज्यादातर मामलों में ये निवेशक लंबे वक्त तक अपनी पोजीशन बरकरार रखते हैं। इसलिए यह जानना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि संस्थागत निवेशक किन शेयरों की खरीद कर रहे हैं और कौन से शेयर उनकी प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। छोटे निवेशकों को सर्तकता तो बरतनी चाहिए और निवेश का कोई भी फैसला करने से पहले पर्याप्त होमवर्क कर ही लेना चाहिए, लेकिन अगर वे इसके साथ संस्थागत गतिविधियों पर भी एक नजर डाल लें तो उन्हें निवेश के बुनियादी विचार की झलक मिल जाएगी।
संस्थागत निवेशक मोटे तौर पर म्यूचुअल फंड, बीमा और पेंशन प्रोवाइडर पर ध्यान केंद्रित करते हैं। बीते कुछ वर्षों से भारतीय इक्विटी में संस्थागत निवेशकों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के आंकड़ों के मुताबिक, अगस्त 2010 को खत्म हुए आठ महीनों में उन्होंने 59,724 करोड़ रुपए की खरीदारी की है। यह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 48 फीसदी ज्यादा है। आमतौर पर रिसर्च पर उनका काफी फोकस होता है और निवेश की उनकी रणनीति मध्यम से लंबी अवधि के लिए होती है।
इसका मतलब यह हुआ कि वे उन्हीं शेयरों में निवेश करते हैं जिनमें मध्यम अवधि के लिए वृद्धि की अच्छी संभावना हो। छोटा निवेशक कंपनी के भावी कारोबार से डिस्काउंटेड कैश फ्लो (डीसीएफ) जैसी निवेश की आधुनिक तकनीकों से परिचित नहीं होता। इसलिए लंबी अवधि के निवेश के लिए संस्थागत निवेशकों के निवेश के चलन पर निगाह बनाए रखना ज्यादा सरल तरीका है।
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क्या है एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग
एनएसई-बीएसई के बीच एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग विवाद सुलझने के आसारक्या है एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग कंप्यूटर प्रोग्राम या एक खास तरह के सॉफ्टवेयर के माध्यम से की जाने वाली शेयरों की खरीद-बिक्री एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग कहलाती है। इस तरह के सॉफ्टवेयर को उचित शेयरों की पहचान और उनकी खरीद-बिक्री के लिए इंसान की जरूरत नहीं होती। ये कंप्यूटर प्रोग्राम खुद यह तय करते हैं कि कब, कहां और किस शेयर का कारोबार करना है। साल 2008 से डायरेक्ट मार्केट एक्सेस की अनुमति मिलने के बाद एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिला है। मिली सेकंड के भीतर ही ऐसे सॉफ्टवेयर आर्बिट्रेज के मौको की तलाश कर सौदों को अंजाम दे डालते हैं।
स्मार्ट ऑर्डर राउटिंगअगर कोई शेयर दो एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध है तो संभव है कि किसी एक एक्सचेंज पर उसकी कीमत अपेक्षाकृत कम हो। स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग आपके लिए बेहतर कीमत की तलाश करता है और उस समय जहां बेहतर कीमत होती है वहां ऑर्डर भेजता है।
एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग के मसले पर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में महीनों से चल रहा विवाद अब सुलझता नजर आ रहा है। हाल ही में सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों और बाजार प्रतिभागियों से प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर एक सर्कुलर जारी किया है जिसके अनुसार स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग (एसओआर) सुविधा की पेशकश करने वाले ब्रोकर को स्टॉक एक्सचेंजों के पास आवेदन करना होगा साथ ही स्टॉक ब्रोकर को एसओआर सिस्टम और सॉफ्टवेयर की थर्ड पार्टी सिस्टम ऑडिट रिपोर्ट भी उपलब्ध करानी होगी। ऐसे सिस्टम ऑडिटरों की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज अपने ब्रोकर को उपलब्ध कराएंगे। सेबी के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सभी निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा।
एक बड़ी ब्रोकिंग कंपनी के निदेशक ने बताया कि एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने वाले दोनों एक्सचेंजों के बीच के कीमतों का लाभ उठा सकेंगे। आम तौर पर बड़े वित्तीय संस्थान एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं। एल्गोरिद्मिक सॉफ्टवेयर संबद्ध एक्सचेंजों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर सेकंड के 100वें हिस्से में बाजार में उपलब्ध कीमतों में अंतर का लाभ उठाते हुए शेयरों की खरीद-बिक्री काफी तेज गति से करता है। यह सॉफ्टवेयर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग का इस्तेमाल करता है।
हालांकि, सेबी के सर्कुलर के अनुसार एसओआर सभी वर्ग के निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा और सदस्यों को क्रियान्वयन की सबसे अच्छी नीति अपनानी होगी। आर्बिट्रेज का उल्लेख सर्कुलर में नहीं किया गया है और इसलिए यह एसओआर का हिस्सा नहीं भी हो सकता है। सेबी के सर्कुलर के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के तहत दिए गए ऑर्डर के लिए स्टॉक एक्सचेंज विशेष पहचान संख्या उपलब्ध कराएंगे। इसके अतिरिक्त स्टॉक एक्सचेंजों को स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के ऑर्डर और कारोबार के आंकड़े रखने पड़ेंगे। सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग लागू होने के तीन महीने के भीतर बाजार में जारी किए जाने वाले मार्केट डेटा के टाइम स्टांपिंग की प्रणाली हो। साथ ही स्टॉक एक्सचेंजों कोबाजार शुरू होने से पहले अपने सिस्टम क्लॉक को एटॉमिक क्लॉक के हिसाब से दुरुस्त करना होगा।
नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की प्रवक्ता दिव्या मलिक लाहिरी ने बताया कि बीएसई के मार्केट डेटा पर टाइम स्टाम्प नहीं होने की वजह से एनएसई की प्रणाली स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग को क्रियान्वित होने से रोक रही थी। एनएसई काफी समय पहले से मार्केट डेटा की स्टांपिंग करता आ रहा है। सेबी के दिशानिर्देशों के बाद बीएसई भी अब मार्केट डेटा की स्टांपिंग करेगा। फिर, ऑर्डर के क्रियान्वयन में बाधा नहीं आनी चाहिए।
बीएसई के डिप्टी सीईओ आशीष कुमार चौहान के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर सेबी का सर्कुलर आने के बाद न केवल एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलेगा बल्कि एक छोटे निवेशक को भी स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग से सही भाव पर शेयरों की खरीदारी करने का अवसर मिलेगा। मुझे उम्मीद है कि एक महीने में सारा मामला सुलझ जाना चाहिए। साल 2008 में डायरेक्ट मार्केट एक्सेस यानी डीएमए की अनुमति मिलने के बाद एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिला है। डीएमए में ग्राहक और एक्सचेंज के बीच ब्रोकर की दखलंदाजी नहीं होती है।
स्मार्ट ऑर्डर राउटिंगअगर कोई शेयर दो एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध है तो संभव है कि किसी एक एक्सचेंज पर उसकी कीमत अपेक्षाकृत कम हो। स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग आपके लिए बेहतर कीमत की तलाश करता है और उस समय जहां बेहतर कीमत होती है वहां ऑर्डर भेजता है।
एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग के मसले पर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में महीनों से चल रहा विवाद अब सुलझता नजर आ रहा है। हाल ही में सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों और बाजार प्रतिभागियों से प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर एक सर्कुलर जारी किया है जिसके अनुसार स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग (एसओआर) सुविधा की पेशकश करने वाले ब्रोकर को स्टॉक एक्सचेंजों के पास आवेदन करना होगा साथ ही स्टॉक ब्रोकर को एसओआर सिस्टम और सॉफ्टवेयर की थर्ड पार्टी सिस्टम ऑडिट रिपोर्ट भी उपलब्ध करानी होगी। ऐसे सिस्टम ऑडिटरों की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज अपने ब्रोकर को उपलब्ध कराएंगे। सेबी के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सभी निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा।
एक बड़ी ब्रोकिंग कंपनी के निदेशक ने बताया कि एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने वाले दोनों एक्सचेंजों के बीच के कीमतों का लाभ उठा सकेंगे। आम तौर पर बड़े वित्तीय संस्थान एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं। एल्गोरिद्मिक सॉफ्टवेयर संबद्ध एक्सचेंजों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर सेकंड के 100वें हिस्से में बाजार में उपलब्ध कीमतों में अंतर का लाभ उठाते हुए शेयरों की खरीद-बिक्री काफी तेज गति से करता है। यह सॉफ्टवेयर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग का इस्तेमाल करता है।
हालांकि, सेबी के सर्कुलर के अनुसार एसओआर सभी वर्ग के निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा और सदस्यों को क्रियान्वयन की सबसे अच्छी नीति अपनानी होगी। आर्बिट्रेज का उल्लेख सर्कुलर में नहीं किया गया है और इसलिए यह एसओआर का हिस्सा नहीं भी हो सकता है। सेबी के सर्कुलर के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के तहत दिए गए ऑर्डर के लिए स्टॉक एक्सचेंज विशेष पहचान संख्या उपलब्ध कराएंगे। इसके अतिरिक्त स्टॉक एक्सचेंजों को स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के ऑर्डर और कारोबार के आंकड़े रखने पड़ेंगे। सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग लागू होने के तीन महीने के भीतर बाजार में जारी किए जाने वाले मार्केट डेटा के टाइम स्टांपिंग की प्रणाली हो। साथ ही स्टॉक एक्सचेंजों कोबाजार शुरू होने से पहले अपने सिस्टम क्लॉक को एटॉमिक क्लॉक के हिसाब से दुरुस्त करना होगा।
नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की प्रवक्ता दिव्या मलिक लाहिरी ने बताया कि बीएसई के मार्केट डेटा पर टाइम स्टाम्प नहीं होने की वजह से एनएसई की प्रणाली स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग को क्रियान्वित होने से रोक रही थी। एनएसई काफी समय पहले से मार्केट डेटा की स्टांपिंग करता आ रहा है। सेबी के दिशानिर्देशों के बाद बीएसई भी अब मार्केट डेटा की स्टांपिंग करेगा। फिर, ऑर्डर के क्रियान्वयन में बाधा नहीं आनी चाहिए।
बीएसई के डिप्टी सीईओ आशीष कुमार चौहान के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर सेबी का सर्कुलर आने के बाद न केवल एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलेगा बल्कि एक छोटे निवेशक को भी स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग से सही भाव पर शेयरों की खरीदारी करने का अवसर मिलेगा। मुझे उम्मीद है कि एक महीने में सारा मामला सुलझ जाना चाहिए। साल 2008 में डायरेक्ट मार्केट एक्सेस यानी डीएमए की अनुमति मिलने के बाद एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिला है। डीएमए में ग्राहक और एक्सचेंज के बीच ब्रोकर की दखलंदाजी नहीं होती है।
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जानिए क्या होता है टीजर लोन
इन दिनों टीजर लोन की चर्चा खूब है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इसकी काफी पब्लिसिटी की और इललिए यह काफी लोकप्रिय भी हो गया है। आइए हम बताते हैं कि टीजर लोन दरअसल है क्या टीजर लोन शुरूआती तौर पर एक सस्ता लोन है। इसके तहत कुछ समय तक यानी दो या तीन सालों के लिए ब्याज दरें निश्चित कर दी जाती हैँ। कुछ मामलों में यह पांच साल भी हो सकता है। लेकिन इसके बाद ब्याज दरें बढ़ जाती हैँ। इसमें ब्याज दरें जान बूझकर कम रखी जाती हैँ ताकि ग्राहकों को ललचाया जा सके। बाद में इसकी दरें बढ़ा दी जाती हैं या इसे फ्लोटिंग रेट में ट्रांसफर कर दिया जाता है। इस तरह के लोन के खिलाफ आलोचकों का कहना है कि यह कर्ज लेने वालों को बरगलाने के लिए है। शुरू में तो उन्हें कम ब्याज में लोन मिल जाता है लेकिन दीर्घकाल में उन्हें घाटा हो सकता है क्योंकि उन्हें फ्लोटिंग रेट पर लोन लेना होगा। उस समय के रेट ज्यादा भी हो सकते हैँ। लेकिन अगर रेट नहीं बढ़े तो ग्राहकों को फायदा हो सकता है लेकिन यह देखते हुए कि हाउसिंग लोन लंबे समय के लिए लिये जाते हैं ब्याज दरों के बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना नामुमकिन है।
हालांकि रिजर्व बैंक ने इस तरह के लोन पर किसी तरह का बयान जारी नहीं किया है लेकिन उसने इसकी बढ़ती प्रवृति पर चिंता जताई है।
हालांकि रिजर्व बैंक ने इस तरह के लोन पर किसी तरह का बयान जारी नहीं किया है लेकिन उसने इसकी बढ़ती प्रवृति पर चिंता जताई है।
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Sep 4, 2010
जानिए क्या होते हैं पिक्सल ?
आप जब भी किसी फोटो को देखते हैं तो लगता है कि वो पूरी तरह से एक ही एलीमेंटस से बनी हुई है लेकिन जनाब ऐसा नहीं है दरअसल जो भी पिक्चर या फोटो हम देखते है वो बहुत छोटे टुकड़ो या बिंदुओ से मिलकर बनी होती है जिसे पिक्सल कहा जाता है। कंप्यूटर से लेकर तमाम डिजिटल उपकरणों पर दिखने वाली तस्वीरें इन्ही पिक्सलों से मिलकर बनती हैं।
लेकिन अहम बात ये है कि पिक्सल किसी भी फोटो को मापने का पैमाना नहीं है। जैसा कि कई बार कैमरों पर पिक्सल्स इंच दिया जाता है। सीधे तौर पर इसे इस तरह समझा जा सकता है कि जिस फोटो में जितने ज्यादा पिक्सल होंगे वो फोटो उतनी ही ज्यादा स्पष्ट होगी। कंप्यूटर के मॉनीटर पर या टीवी स्क्रीन या कोई भी फोटो लाखों पिक्सल्स से मिलकर बनी होती है। हर एक पिक्सल आठ या उसके गुणक में रंग ग्रहण करता है। बिट को इसकी इकाई माना जाता है। अगर किसी पिक्सल में 24 बिट हैं तो वर अधिकतम 16 लाख रंगों को दिखा सकता है। माना जाता है कि पिक्सल ही किसी फोटो की सबसे छोटी इकाई होते हैं लेकिन ये पिक्सल भी कई छोटे तत्वों से मिलकर बने होते हैं। एक मॉनीटर का पिक्सल तीन रंगों के बिंदुओ से बने होते हैं ये रंग हैं ला, हरा और बैंगनी। ये तीनो रंग किसी पिक्सल में घुले मिले होते हैं। डिजिटल कैमरों के लिए मेगापिक्सल शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जो पिक्सल से भी छोटी इकाई है। मेगापिक्सल्स कैमरों को बेहतर माना जाता है।
लेकिन अहम बात ये है कि पिक्सल किसी भी फोटो को मापने का पैमाना नहीं है। जैसा कि कई बार कैमरों पर पिक्सल्स इंच दिया जाता है। सीधे तौर पर इसे इस तरह समझा जा सकता है कि जिस फोटो में जितने ज्यादा पिक्सल होंगे वो फोटो उतनी ही ज्यादा स्पष्ट होगी। कंप्यूटर के मॉनीटर पर या टीवी स्क्रीन या कोई भी फोटो लाखों पिक्सल्स से मिलकर बनी होती है। हर एक पिक्सल आठ या उसके गुणक में रंग ग्रहण करता है। बिट को इसकी इकाई माना जाता है। अगर किसी पिक्सल में 24 बिट हैं तो वर अधिकतम 16 लाख रंगों को दिखा सकता है। माना जाता है कि पिक्सल ही किसी फोटो की सबसे छोटी इकाई होते हैं लेकिन ये पिक्सल भी कई छोटे तत्वों से मिलकर बने होते हैं। एक मॉनीटर का पिक्सल तीन रंगों के बिंदुओ से बने होते हैं ये रंग हैं ला, हरा और बैंगनी। ये तीनो रंग किसी पिक्सल में घुले मिले होते हैं। डिजिटल कैमरों के लिए मेगापिक्सल शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जो पिक्सल से भी छोटी इकाई है। मेगापिक्सल्स कैमरों को बेहतर माना जाता है।
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Sep 3, 2010
जानिए क्या है ‘क्यूआईबी’
क्यूआईबी या क्वालिफाइड इंस्टीट्यूशन बायर्स यानि वो खरीदार जिन्हे सेबी ने रेकमेंड किया है और जिनके पास पहले से ही बड़ा फंड होता है। ये खरीदार बड़े पैमाने पर शेयर्स की खरीद करते हैं। इनमें शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंक, इरडा के पास रजिस्टर्ड इंश्योरेंस कंपनियां, म्यूचुअल फंड हाउस, एफआईआई आदि शामिल हैं। ये सब सेबी द्वारा लीगल रुप से रेकमेंड किए जाते हैं
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जानिए रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट का अंतर
गलवार को रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए रेपो और रिवर्स रेपो दोनो ही दरों को बढ़ा दिया है । इस नीति के अंतर्गत केन्द्रीय बैंक आगे की रणनीतिके बारे में दिशा निर्देश तय करता है। जिसके तहत वह रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट कोघटाता या बढ़ाता है। लेकिन आरबीआई के इन तकनीकी शब्दों के बारे में आम आदमी काज्ञान शून्य रहता है। आइए जानते हैं। क्या होती है रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट औरक्यों जरुरत होती है इसे घटाने और बढ़ाने की।
रेपो रेट
आम आदमी कीतरह बैंकों और वित्तीय संस्थानों को भी कर्ज की जरुरत पड़ती है ऐसे में ये रिजर्वबैंक से शार्ट टर्म के लिए कर्ज लेते हैं। जिस ब्याज दर पर आरबीआई बैंकों औरवित्तीय संस्थानों को कर्ज देता है उसे रेपो रेट कहते है। जब बाजार में लिक्विडिटीज्यादा हो जाती है तो आरबीआई रेपो रेट बढ़ा देता है जिससे आरबीआई से मिलने वालाकर्ज महंगा हो जाता है और बाजार में लिक्विडिटी में कमी आ जाती है। इससे महंगाई कोकाबू में करने में भी मदद मिलती है।
रिवर्स रेपो रेट
बैंकों औरवित्तीय संस्थानों के पास जब नगदी की अधिकता हो जाती है तो वो उसे आरबीआई को उधारदे देते हैं। जिस दर पर आरबीआई उन्हें ब्याज देता है उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं।महंगाई को काबू में करने के लिए भी रिवर्स रेपो रेट आरबीआई बढ़ा देता है जिससे बैंकबाजार में पैसा लगाने के बजाय आरबीआई के पास पैसा जमा करवाने में ज्यादा दिलचस्पीदिखाते हैं।
रेपो रेट
आम आदमी कीतरह बैंकों और वित्तीय संस्थानों को भी कर्ज की जरुरत पड़ती है ऐसे में ये रिजर्वबैंक से शार्ट टर्म के लिए कर्ज लेते हैं। जिस ब्याज दर पर आरबीआई बैंकों औरवित्तीय संस्थानों को कर्ज देता है उसे रेपो रेट कहते है। जब बाजार में लिक्विडिटीज्यादा हो जाती है तो आरबीआई रेपो रेट बढ़ा देता है जिससे आरबीआई से मिलने वालाकर्ज महंगा हो जाता है और बाजार में लिक्विडिटी में कमी आ जाती है। इससे महंगाई कोकाबू में करने में भी मदद मिलती है।
रिवर्स रेपो रेट
बैंकों औरवित्तीय संस्थानों के पास जब नगदी की अधिकता हो जाती है तो वो उसे आरबीआई को उधारदे देते हैं। जिस दर पर आरबीआई उन्हें ब्याज देता है उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं।महंगाई को काबू में करने के लिए भी रिवर्स रेपो रेट आरबीआई बढ़ा देता है जिससे बैंकबाजार में पैसा लगाने के बजाय आरबीआई के पास पैसा जमा करवाने में ज्यादा दिलचस्पीदिखाते हैं।
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