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Feb 10, 2013
MOVIE REVIEW: स्पेशल छब्बीस है बिल्कुल स्पेशल
कुछ फिल्मों से हमारी खासी अपेक्षाएं होने के बावजूद उनके प्रति हमारे मन में एक डर बना रहता है। इस डर को केवल वही समझता है, जिसने अपनी जिंदगी का एक खासा हिस्सा इस अभिनेता की बेसिर-पैर की फिल्में देखते हुए बिताया है। लेकिन यदि किसी फिल्म का प्रोमो आकर्षक होता हो और यदि कहानी में दम हो, तो हम सोच भी नहीं कर सकते कि कोई सितारा अपनी स्टार पावर से उस फिल्म् को कितनी कामयाबी दिला सकता है। फिल्म शुरू होते ही हम एक पंजाबी शादी का दृश्य देखते हैं, जिसमें परंपरागत रूप से भांगड़ा और गिद्दा चल रहा है और ‘मर जावां’ और ‘सोणिये’ जैसे शब्दों का इफरात से इस्तेमाल किया जा रहा है। हम मायूस होने लगते हैं, लेकिन मन में उम्मीद कायम रखते हैं। हीरोइन (काजल अग्रवाल) की नजर हीरो पर पड़ती है। उसका परिवार किसी और से उसकी शादी कर रहा है, लेकिन वह जानती है कि मंडप में कदम रखने से पहले ही हीरो उसे ले उड़ेगा। लेकिन मुझे आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि इस फिल्म का इस रोमांस कथा से कोई खास लेना-देना नहीं है। यह एक समझदार फिल्म है और लगभग पूरे समय वह अपनी समझदारी को बरकरार रखती है। फिल्म के प्रोमोज जाहिर हैं। वे हमें इस फिल्म के बारे में तमाम जरूरी जानकारियां दे देते हैं। लुटेरों का एक समूह है और अक्षय उनके कान्फिडेंट मास्टरमाइंड हैं। अनुपम खेर उनके बूढ़े और नर्वस सहयोगी हैं। ये सामान्य किस्म के लोग मालूम होते हैं, जो खुद को सीबीआई के इन्वेस्टिगेटर्स बताते हैं। वे लोकल पुलिस वालों को फुसला लेते हैं, सरकारी गाड़ी में सवार हो जाते हैं, लुटियंस दिल्लीं में एक मंत्री के घर पर जा धमकते हैं और घर में छुपाकर रखी गई नोटों की गड्डियां बरामद कर लेते हैं। वे इस तमाम रकम को मेटल के सूटकेस में बंद कर लेते हैं, अपनी कार के ट्रंक में पैक कर लेते हैं, और इससे पहले कि मंत्री यह समझ पाए कि उसे दिनदहाड़े लूट लिया गया है, वहां से रफूचक्कर हो जाते हैं। मंत्री पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करता। वह कहता है कि यदि यह खबर फैल गई तो उसकी नेतागिरी पर सवालिया निशान लग जाएंगे। लेकिन इस फर्जी छापे की खबर पर चुप्पी साधे रखने की असल वजह दूसरी है। चुराया गया पैसा गैरकानूनी है। दो गलत मिलकर सही नहीं हो सकते। आखिर आप किसी ऐसी रकम की लूट की रिपोर्ट कैसे दर्ज करा सकते हैं, जो आपके पास होना ही नहीं चाहिए थी? यह बहुत शातिर प्लान था, जिसे बहुत सफाई के साथ अंजाम दिया गया। लुटेरों का यह समूह इसी तरह कभी-कभी मिलता है और अनेक अन्य सरकारी एजेंट्स के यहां छापे मारता रहता है। फिल्म में हम उन्हें केवल दो बार हरकत में देखते हैं – एक बार नई दिल्ली में और दूसरी बार कलकत्ता में। तीसरी हरकत बंबई में होनी है, जहां फिल्म का क्लाइमेक्स होता है। साल है 1987, जब सफेद पगड़ी पहनने वाले ज्ञानी जैल सिंह भारत के राष्ट्रंपति हुआ करते थे। टाइम्स ऑफ इंडिया तब ब्लैक एंड व्हाइट अखबार हुआ करता था। फिल्मकार ने यह भी ध्यान रखा है कि 80 के दशक की दिल्ली को दिखाए। हमें कनॉट प्ले्स की सड़कों पर मारुति 800 और प्रीमियर पद्मिनी की कतारें नजर आती हैं। लेकिन शायद कलकत्ता आज से तीन दशक पहले भी ऐसा ही दिखता था, जैसा आज दिखता है। निर्देशक नीरज पांडे (ए वेडनेसडे फेम) ने ब्योरों पर बारीक नजर बनाए रखी है। तब रोटरी और लैंडलाइन फोन ही कम्यूनिकेशन का इकलौता साधन हुआ करते थे। यदि तब आज की तरह सेलफोन होते तो लुटेरों का यह समूह कामयाब नहीं हो सकता था। लेकिन इसके बावजूद सीबीआई का एक टॉप अधिकारी (एक धांसू रोल में मनोज बाजपेयी) इस मामले को अपने हाथ में लेकर उनकी जिंदगी मुश्किल बना देता है। उसे तीन लुटेरों को रंगे हाथों पकड़ना है। उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं। तब यह फिल्म चूहे-बिल्लीं की एक रोमांचक दौड़ बन जाती है और स्टीनवन स्पिलबर्ग की लाजवाब फिल्म 'कैच मी इफ यू कैन' (2002) की याद दिलाती है। फिल्म की कहानी तेज गति से आगे बढ़ती है और हमें सोचने तक का समय नहीं मिलता, जो अच्छा ही है। हम मुख्य किरदार के बैकग्राउंड के बारे में अब भी बहुत कम जानते हैं। हममें से बहुतेरे लोग आसानी से इन शातिर लुटेरों के शिकार बन सकते हैं और शायद किसी न किसी रूप में बने भी होंगे। फिल्म के इंटरवल के दौरान स्मोकिंग करते हुए दर्शक आपस में यही बतियाते पाए जाते हैं कि ऐसी ही कोई घटना उनके साथ बंबई में चेंबूर से झवेरी बाजार के दरमियान कहीं घटी थी। आखिर महाठग मिस्टर नटवरलाल को कभी कोई पकड़ नहीं सका था। यहां तक कि तब भी नहीं, जब वह अनेक बार ताजमहल को बेच चुका था। फिल्म 'बंटी और बबली' का एक दृश्य मिस्टर नटवरलाल के इस हुनर से ही प्रेरित था। इसमें कोई शक नहीं कि यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है।
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FILM REVIEW
Jan 13, 2011
टर्निंग 30’
कहानी
टर्निंग 30
कहानी:फिल्म की कहानी है नैना (गुल पनाग)की जिसकी लाइफ में 30 का पड़ाव पार करते ही कई बदलाव आ जाते हैं|उसका दिल टूट जाता है और दूसरी ओर उसका करियर भी डगमगाने लगता है|फिल्म एक अपरिपक्व महिला के जिम्मेदार बनने की कहानी है|इस दौरान उसकी जिंदगी में कई उतार चढ़ाव आते हैं मगर हार न मानते हुए अंततः वह मंजिल पा ही जाती है|
रिव्यू:प्रकाश झा और अलंकृता श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इस फिल्म के जरिए ऐसे विषय को उठाया जिसपर ज्यादा फिल्में अब तक नहीं बनी|फिल्म का पहला भाग गुल पनाग पर ही केन्द्रित है जो ढलती उम्र,ब्रेक अप और करियर में उतार चढ़ाव से परेशान है|बीच में फिल्म की रफ़्तार काफी धीमी हो जाती है मगर जीवंत संवाद फिल्म से दर्शकों को जोड़े रखता है|फिल्म का अंत काफी सुखद होता है मगर उसे काफी चलताऊ तरीके से फिल्माया गया है|इसे अगर औरपरिपक्व तरीके से फिल्माया जाता तो यह और प्रभावशाली हो सकता था|फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|
स्टोरी ट्रीटमेंट:'टर्निंग 30 ' महत्वपूर्ण दृश्यों और संवाद का मिल जुला रूप है जिससे आप खुद को जोड़कर देख सकते हैं कि जब आप 30 साल के होंगे तो आपको किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा| सोचिये अगर आप एक लड़की हैं और 30 की उम्र में ढलते यौवन और जॉब खो देने की वजह से जब आपको कोई साथी न मिले तो आपको कैसा लगेगा|मगर गुल को सारी परेशानियों से लड़ते हुए एक परिपक्व महिला बनते देखना काफी दिलचस्प है|
स्टार कास्ट:फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|उनका स्टाइल सेन्स,छोटे छोटे बाल उनके केरेक्टर को और निखारने में कामयाब रहे हैं|पूरब कोहली ने जय के किरदार को सहजता से निभाया है|वह पहले तो नैना को सिर्फ एक सेक्स की पूर्ति करने का जरिया समझता है मगर बाद में उससे सच में प्यार करने लग जाता है|
निर्देशन:नयी निर्देशिका अलंकृता श्रीवास्तव ने एक नए विषय पर फिल्म बनाई है जो काबिले तारीफ है|उन्होंने फिल्म के माध्यम से एक छुपे विषय को उठाने की कोशिश की है|हालाँकि फिल्म की कहानी एक सीमित और उच्च वर्ग के दर्शकों को ही ज्यादा रास आयेगी मगर इससे अलंकृता के कमाल के निर्देशन की झलक दिख गई है|
डायलॉग्स/सिनेमाटोग्राफी/म्यूजिक:फिल्म के संवाद हार्डहिटिंग हैं खास तौर से जिस प्रकार वह एक्टर्स के द्वारा बोले गए हैं|सिनेमाटोग्राफी भी अपना ध्यान खींचती है खास तौर से जिस प्रकार से कैमरा एंगल्स लिए गए हैं वह काफी अलग और प्रभावशाली हैं|फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है और टाइटल ट्रेक 'टर्निंग 30' अपीलिंग है|'सपने' गाना एक अच्छा साउंडट्रेक है|
अप्स और डाउन्स:एक अच्छी लिखी हुई और निर्देशित फिल्म जो 30 + महिला के जीवन के उतार चढ़ाव को बखूबी दर्शाती है|गुल पनाग की सधी हुई एक्टिंग और बेहतरीन स्क्रीनप्ले फिल्म की जान हैं|प्रकाश झा जो कि एक सीमित विषय और गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं उनके प्रोडक्शन में एक महिला केन्द्रित फिल्म बनना काफी अलग और हटकर लगता है|मगर फिल्म सीमित और उच्च वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई हुई ज्यादा लगती है इसलिए हर एक वर्ग को जोड़ने में नाकामयाब रहेगी|
आपकी रेटिंग
इसे पढ़ने के बाद आप फिल्म को क्या रेटिंग देना चाहेंगे? क्या फिल्म की कहानी का विषय आम दर्शकों को खींचने का दम रखता है? नीचे कमेंट बॉक्स में आप अपनी राय भी लिख कर सभी दर्शकों के साथ साझा कर सकते हैं।
टर्निंग 30
कहानी:फिल्म की कहानी है नैना (गुल पनाग)की जिसकी लाइफ में 30 का पड़ाव पार करते ही कई बदलाव आ जाते हैं|उसका दिल टूट जाता है और दूसरी ओर उसका करियर भी डगमगाने लगता है|फिल्म एक अपरिपक्व महिला के जिम्मेदार बनने की कहानी है|इस दौरान उसकी जिंदगी में कई उतार चढ़ाव आते हैं मगर हार न मानते हुए अंततः वह मंजिल पा ही जाती है|
रिव्यू:प्रकाश झा और अलंकृता श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इस फिल्म के जरिए ऐसे विषय को उठाया जिसपर ज्यादा फिल्में अब तक नहीं बनी|फिल्म का पहला भाग गुल पनाग पर ही केन्द्रित है जो ढलती उम्र,ब्रेक अप और करियर में उतार चढ़ाव से परेशान है|बीच में फिल्म की रफ़्तार काफी धीमी हो जाती है मगर जीवंत संवाद फिल्म से दर्शकों को जोड़े रखता है|फिल्म का अंत काफी सुखद होता है मगर उसे काफी चलताऊ तरीके से फिल्माया गया है|इसे अगर औरपरिपक्व तरीके से फिल्माया जाता तो यह और प्रभावशाली हो सकता था|फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|
स्टोरी ट्रीटमेंट:'टर्निंग 30 ' महत्वपूर्ण दृश्यों और संवाद का मिल जुला रूप है जिससे आप खुद को जोड़कर देख सकते हैं कि जब आप 30 साल के होंगे तो आपको किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा| सोचिये अगर आप एक लड़की हैं और 30 की उम्र में ढलते यौवन और जॉब खो देने की वजह से जब आपको कोई साथी न मिले तो आपको कैसा लगेगा|मगर गुल को सारी परेशानियों से लड़ते हुए एक परिपक्व महिला बनते देखना काफी दिलचस्प है|
स्टार कास्ट:फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|उनका स्टाइल सेन्स,छोटे छोटे बाल उनके केरेक्टर को और निखारने में कामयाब रहे हैं|पूरब कोहली ने जय के किरदार को सहजता से निभाया है|वह पहले तो नैना को सिर्फ एक सेक्स की पूर्ति करने का जरिया समझता है मगर बाद में उससे सच में प्यार करने लग जाता है|
निर्देशन:नयी निर्देशिका अलंकृता श्रीवास्तव ने एक नए विषय पर फिल्म बनाई है जो काबिले तारीफ है|उन्होंने फिल्म के माध्यम से एक छुपे विषय को उठाने की कोशिश की है|हालाँकि फिल्म की कहानी एक सीमित और उच्च वर्ग के दर्शकों को ही ज्यादा रास आयेगी मगर इससे अलंकृता के कमाल के निर्देशन की झलक दिख गई है|
डायलॉग्स/सिनेमाटोग्राफी/म्यूजिक:फिल्म के संवाद हार्डहिटिंग हैं खास तौर से जिस प्रकार वह एक्टर्स के द्वारा बोले गए हैं|सिनेमाटोग्राफी भी अपना ध्यान खींचती है खास तौर से जिस प्रकार से कैमरा एंगल्स लिए गए हैं वह काफी अलग और प्रभावशाली हैं|फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है और टाइटल ट्रेक 'टर्निंग 30' अपीलिंग है|'सपने' गाना एक अच्छा साउंडट्रेक है|
अप्स और डाउन्स:एक अच्छी लिखी हुई और निर्देशित फिल्म जो 30 + महिला के जीवन के उतार चढ़ाव को बखूबी दर्शाती है|गुल पनाग की सधी हुई एक्टिंग और बेहतरीन स्क्रीनप्ले फिल्म की जान हैं|प्रकाश झा जो कि एक सीमित विषय और गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं उनके प्रोडक्शन में एक महिला केन्द्रित फिल्म बनना काफी अलग और हटकर लगता है|मगर फिल्म सीमित और उच्च वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई हुई ज्यादा लगती है इसलिए हर एक वर्ग को जोड़ने में नाकामयाब रहेगी|
आपकी रेटिंग
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FILM REVIEW
Sep 11, 2010
इडियट्स' को पीछे छोड़ देगी 'दबंग'!
त्यौहारों के मौके पर रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म ‘दबंग’ शुरुआती दिन ही बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त हिट रही। करीब 18 करोड़ रुपए की लागत से बनी यह फिल्म 40 करोड़ रुपए में डिस्ट्रीब्यूटर्स के हाथों बिक गई। देश भर में 1300 सिनेमाघरों में रिलीज हुई दबंग शुक्रवार को रिलीज के दिन 97 फीसदी हाउसफुल रही।
ईद के मौके पर रिलीज दबंग को आमिर खान की 'थ्री इडियट्स' की तरह कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा रही है। अगर पिछले कुछ समय में आई कुछ फिल्मों से तुलना करें तो दबंग की ओपनिंग थ्री इडियट्स के करीब रही। हालांकि खुद सलमान की ही ईद पर रिलीज हुई ‘वांटेड’ ने सफलता के झंडे गाड़े थे। दबंग फिल्म की हाइप और दर्शकों के क्रेज को देखते हुए सभी मल्टीप्लेक्सों ने इसे प्रमुखता दी और नंबर ऑफ शोज भी बढ़ा दिए। बावजूद इसके फिल्म के टिकटों के लिए मारामारी रही।
पिछले साल क्रिसमस के मौके पर रिलीज हुई थ्री इडियट्स ने 41 करोड़ रुपए की ‘वीकेंड ओपनिंग’ कर रिकार्ड बनाया था। जानकारों का कहना है कि सब कुछ ठीक रहा तो दबंग, थ्री इडियट्स को भी पीछे छोड़ देगी। ‘फिल्म इंफॉर्मेशन’ के एडिटर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘फिल्म की वीकेंड ओपनिंग के अंतिम आंकड़ें आने तक यह संभव है।’
’ट्रेड गाइड’ के एडिटर तरण आदर्श कहते हैं कि दबंग पहले वीकेंड पर 45 करोड़ रुपए की कमाई करेगी और इस तरह कलेकशन के मामले में थ्री इडियट्स को पीछे छोड़ देगी। उन्होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर यह इस साल की सबसे सुपरहिट फिल्म साबित होगी। सबसे बड़ी बात है कि यह फिल्म थ्री इडियट्स को तगड़ी टक्कर दे रही है। यह फिल्म सिनेमाघरों के साथ साथ मल्टीप्लेक्सों में भी धूम मचा रही है।
बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता शत्रुध्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी इस फिल्म के जिरए पहली बार फिल्मों पर कदम रख रही हैं। अन्य कलाकारों में मलाइका अरोड़ा खान आइटम गर्ल की भूमिका में हैं तो विनोद खन्ना, डिम्पल कपाडि़या, सोनू सूद जैसे कलाकार भी हैं। दिल्ली-एनसीआर में इस फिल्म के 250 प्रिंट बिके हैं। यह फिल्म मेट्रो से इतर छोटे शहरों में भी खूब धूम मचा रही है।
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Sep 6, 2010
फिल्मी हीरो
अरसे बाद ऐसा हुआ है कि किसी फिल्म के प्रोमो ने मुझमें इतनी दिलचस्पी जगाई है कि मैं उसका पहले दिन का पहला शो देखने के लिए बेचैन हूं। मुझे नहीं पता कि फिल्म अच्छी होगी या बुरी। संभावना तो यही है कि फिल्म चलताऊ ही होगी। हाल ही में इस तरह की दो फिल्में आई थीं और वे दोनों भी ऐसी ही थीं। यह अलग बात है कि उन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर खूब धूम मचाई।
उनमें से एक आमिर खान की फिल्म थी, जिसके बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के बाद आमिर ने मार्केटिंग के महारथी का रुतबा हासिल कर लिया। इसकी एक वजह यह भी रही कि आमिर ने शाहरुख खान की सल्तनत में सेंध लगा दी थी। शाहरुख खान रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्म में अपने जाने-पहचाने रंग-ढंग के साथ मौजूद थे, लेकिन इस फिल्म के प्रदर्शन के महज दो हफ्तों बाद रिलीज हुई आमिर की फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया। देखते ही देखते सभी का ध्यान सुरिंदर साहनी से हटकर संजय सिंघानिया पर केंद्रित हो गया। मेरी नजर में दोनों ही फिल्में सामान्य थीं, लेकिन आमिर की फिल्म बहुत बड़ी हिट हो गई। साथ ही इसने बॉलीवुड को कामयाबी का एक नया मंत्र भी दे दिया : खूनखराबे से भरा ‘तमिल तड़का’।
इसकी सफलता के बाद इसी शैली की एक और फिल्म आई, लेकिन वह तमिल के बजाय तेलुगू मूल की थी : वांटेड। आप इससे बुरी किसी दूसरी फिल्म की कल्पना नहीं कर सकते। कमजोर कहानी, ढीली बुनावट, बिना किसी कुशलता के एक साथ नत्थी कर दिए गए अलग-अलग बिखरे हुए हिस्से। इसके बावजूद अगर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ दिए तो उसकी वजह थे सलमान खान। सलमान अपने चिर-परिचित अंदाज में परदे पर आए थे और उनका यही जादू काम कर गया। स्क्रीन पर सलमान का होना ही काफी होता है।
अगर आप मेरी तरह फिल्म को उसके प्रीमियर या टीवी पर नहीं देखते हैं। अगर आप फिल्म को मल्टीप्लेक्स के बजाय सिंगल स्क्रीन टॉकीज में देखते हैं, तो आप समझ सकते हैं कि सलमान का जादू क्यों चलता है। अकड़ से भरी उनकी चाल पर सीटियां बजती हैं। पुराने ढब के इन टॉकीजों में सलमान की हर अदा पर तालियां पड़ती हैं। उनके संवादों को दर्शक दोहराते हैं। कई ऐसे भी होते हैं, जो इससे पहले भी कई बार वह फिल्म देख चुके होते हैं। वे भी सलमान के साथ-साथ डायलॉग बोलकर सुनाते हैं।
सलमान अकेले ऐसे सितारे हैं, जिनके प्रशंसक उनसे अभिनय की उम्मीद नहीं करते। वे बस इतना ही चाहते हैं कि सलमान ठसक के साथ अकड़कर चलें, गाहे-बगाहे एकाध करारे डायलॉग छोड़ते रहें और जरूरत पड़ने पर अपने से भी कद्दावर गुंडों की ठुकाई कर दें। हां, वे एक क्षण के लिए अपनी तालियां सबसे ज्यादा सहेजकर रखते हैं, वह पल होता है जब सलमान अपनी शर्ट उतारते हैं। फिर चाहे सलमान को यह काम किसी की पिटाई करने के लिए करना पड़े या कोई चालू किस्म का गाना गाने के लिए।
आमिर इससे ठीक उलट हैं। वे कभी नहीं चाहते कि उनसे कोई गलती हो। उनके लिए हर रोल जिंदगी और मौत का सवाल होता है। उनकी फिल्में भी सलमान की फिल्मों के ठीक उलट होती हैं। वे इतनी एहतियात के साथ बनाई गई होती हैं कि प्रत्येक दृश्य से फिल्म की भावना और अहसास नजर आते हैं। फिल्म के दृश्यों में आमिर का व्यावहारिक कौशल नजर आ ही जाता है, लेकिन उन्हें इसलिए नजरअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि वे आमिर हैं और कुछ भी गलत नहीं कर सकते। अब तो आमिर के प्रोडच्यूसरों ने भी खुलकर शाहरुख खान के साथ नंबर गेम की जंग छेड़ दी है।
पूरे-पूरे पन्नों के विज्ञापन छपवाए जाते हैं, जिनमें आमिर की फिल्मों के बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के आंकड़े होते हैं। यह सिलसिला तब तक जारी रहता है, जब तक फिल्मी पंडित इस जोड़-गणित से तौबा नहीं कर लेते। अक्षय कुमार के निर्माताओं ने भी कुछ समय के लिए नंबर गेम की इस होड़ में शिरकत की, पर पिछली कुछ फिल्मों के पिटने के बाद वे अब खामोश हो गए हैं। लेकिन अक्षय का करिश्मा अब भी बरकरार है। अक्षय जानते हैं कि उनके पास हंसी-ठिठोली का ऐसा माद्दा है कि यदि पटकथा में थोड़ी-बहुत झोल भी हो तो वे उसे छुपा लेंगे। शायद इसी भरोसे से अक्षय आंख मूंदकर कोई भी फिल्म साइन कर लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि आज सलमान को छोड़ बाकी सारे फिल्मी अभिनेता ‘स्टार’ नहीं लगते। वे अब स्टार से ज्यादा बिजनेसमैन दिखने लगे हैं। शाहरुख तो एक बिजनेस पत्रिका के कवर पर भी अवतरित हो चुके हैं। अब वे स्टार के बजाय किसी प्रोडच्यूसर सरीखा व्यवहार करते ज्यादा नजर आते हैं। यही हाल आमिर का भी है। वे भूल रहे हैं कि इस तरह एक बड़ा प्रशंसक वर्ग तैयार नहीं किया जा सकता।
आम आदमी अमूमन रुपए-पैसों के गणित में उलझे रहने वाले शख्स को पसंद नहीं करता। लोग आम तौर पर बिजनेसमैन को पसंद नहीं करते। जब मैं छोटा था, तब अधिकतर फिल्मों में खलनायक गांव का महाजन या शहर का सफेदपोश साहूकार ही होता था। अब भारत की तस्वीर बदल गई है और लोगों के लिए पैसा कोई खराब चीज नहीं रह गई है, लेकिन हमारे देश का आम आदमी आज भी किसी अमीर आदमी के बजाय अपने हीरो को ही रुपहले परदे पर देखना पसंद करता है। पूरे दो दशक तक हमारे बॉलीवुड का हीरो एक ऐसा एंग्री यंग मैन रहा, जो सिस्टम से अकेले लड़ता था और अकेले ही गुनहगारों का पर्दाफाश भी कर देता था।
इसीलिए मैं एक बार फिर चुलबुल पांडे के बारे में सोच रहा हूं। मुझे कोई शक नहीं है कि दबंग किस तरह की फिल्म होगी। लेकिन मैं ऐसी फिल्मों को पसंद करता हूं, जिनमें कोई सिरफिरा किस्म का हीरो उतनी ही सिरफिरी किस्म की कहानी के साथ हमारे सामने आता है और परदे पर अजीबोगरीब हरकतें करते हुए दर्शकों का दिल जीत लेता है। आज सलमान से बेहतर इस काम को और कोई अंजाम नहीं दे सकता।
क्या मैं खुद कभी इस तरह की कोई फिल्म बनाऊंगा? शायद नहीं। क्या मैं आपको इस तरह की कोई फिल्म देखने का सुझाव दूंगा? कतई नहीं। लेकिन क्या मैं सीटियां बजाते, तालियां पीटते दीवाने प्रशंसकों के बीच किसी एकल ठाठिया टॉकीज में यह फिल्म देखने जाऊंगा? जी हां। फिल्म देखने के इस सबसे मजेदार अनुभव के लिए ही मैं पैसे खर्च करता हूं। यह मुझे अपने बचपन के दिनों की याद दिलाता है। यह मुझे उन फिल्मों की याद दिलाता है, जहां हमारी फिल्में निहायत ‘फिल्मी’ किस्म की हुआ करती थीं और हमारे फिल्मी हीरो कुछ भी कर सकते थे।
उनमें से एक आमिर खान की फिल्म थी, जिसके बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के बाद आमिर ने मार्केटिंग के महारथी का रुतबा हासिल कर लिया। इसकी एक वजह यह भी रही कि आमिर ने शाहरुख खान की सल्तनत में सेंध लगा दी थी। शाहरुख खान रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्म में अपने जाने-पहचाने रंग-ढंग के साथ मौजूद थे, लेकिन इस फिल्म के प्रदर्शन के महज दो हफ्तों बाद रिलीज हुई आमिर की फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया। देखते ही देखते सभी का ध्यान सुरिंदर साहनी से हटकर संजय सिंघानिया पर केंद्रित हो गया। मेरी नजर में दोनों ही फिल्में सामान्य थीं, लेकिन आमिर की फिल्म बहुत बड़ी हिट हो गई। साथ ही इसने बॉलीवुड को कामयाबी का एक नया मंत्र भी दे दिया : खूनखराबे से भरा ‘तमिल तड़का’।
इसकी सफलता के बाद इसी शैली की एक और फिल्म आई, लेकिन वह तमिल के बजाय तेलुगू मूल की थी : वांटेड। आप इससे बुरी किसी दूसरी फिल्म की कल्पना नहीं कर सकते। कमजोर कहानी, ढीली बुनावट, बिना किसी कुशलता के एक साथ नत्थी कर दिए गए अलग-अलग बिखरे हुए हिस्से। इसके बावजूद अगर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ दिए तो उसकी वजह थे सलमान खान। सलमान अपने चिर-परिचित अंदाज में परदे पर आए थे और उनका यही जादू काम कर गया। स्क्रीन पर सलमान का होना ही काफी होता है।
अगर आप मेरी तरह फिल्म को उसके प्रीमियर या टीवी पर नहीं देखते हैं। अगर आप फिल्म को मल्टीप्लेक्स के बजाय सिंगल स्क्रीन टॉकीज में देखते हैं, तो आप समझ सकते हैं कि सलमान का जादू क्यों चलता है। अकड़ से भरी उनकी चाल पर सीटियां बजती हैं। पुराने ढब के इन टॉकीजों में सलमान की हर अदा पर तालियां पड़ती हैं। उनके संवादों को दर्शक दोहराते हैं। कई ऐसे भी होते हैं, जो इससे पहले भी कई बार वह फिल्म देख चुके होते हैं। वे भी सलमान के साथ-साथ डायलॉग बोलकर सुनाते हैं।
सलमान अकेले ऐसे सितारे हैं, जिनके प्रशंसक उनसे अभिनय की उम्मीद नहीं करते। वे बस इतना ही चाहते हैं कि सलमान ठसक के साथ अकड़कर चलें, गाहे-बगाहे एकाध करारे डायलॉग छोड़ते रहें और जरूरत पड़ने पर अपने से भी कद्दावर गुंडों की ठुकाई कर दें। हां, वे एक क्षण के लिए अपनी तालियां सबसे ज्यादा सहेजकर रखते हैं, वह पल होता है जब सलमान अपनी शर्ट उतारते हैं। फिर चाहे सलमान को यह काम किसी की पिटाई करने के लिए करना पड़े या कोई चालू किस्म का गाना गाने के लिए।
आमिर इससे ठीक उलट हैं। वे कभी नहीं चाहते कि उनसे कोई गलती हो। उनके लिए हर रोल जिंदगी और मौत का सवाल होता है। उनकी फिल्में भी सलमान की फिल्मों के ठीक उलट होती हैं। वे इतनी एहतियात के साथ बनाई गई होती हैं कि प्रत्येक दृश्य से फिल्म की भावना और अहसास नजर आते हैं। फिल्म के दृश्यों में आमिर का व्यावहारिक कौशल नजर आ ही जाता है, लेकिन उन्हें इसलिए नजरअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि वे आमिर हैं और कुछ भी गलत नहीं कर सकते। अब तो आमिर के प्रोडच्यूसरों ने भी खुलकर शाहरुख खान के साथ नंबर गेम की जंग छेड़ दी है।
पूरे-पूरे पन्नों के विज्ञापन छपवाए जाते हैं, जिनमें आमिर की फिल्मों के बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के आंकड़े होते हैं। यह सिलसिला तब तक जारी रहता है, जब तक फिल्मी पंडित इस जोड़-गणित से तौबा नहीं कर लेते। अक्षय कुमार के निर्माताओं ने भी कुछ समय के लिए नंबर गेम की इस होड़ में शिरकत की, पर पिछली कुछ फिल्मों के पिटने के बाद वे अब खामोश हो गए हैं। लेकिन अक्षय का करिश्मा अब भी बरकरार है। अक्षय जानते हैं कि उनके पास हंसी-ठिठोली का ऐसा माद्दा है कि यदि पटकथा में थोड़ी-बहुत झोल भी हो तो वे उसे छुपा लेंगे। शायद इसी भरोसे से अक्षय आंख मूंदकर कोई भी फिल्म साइन कर लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि आज सलमान को छोड़ बाकी सारे फिल्मी अभिनेता ‘स्टार’ नहीं लगते। वे अब स्टार से ज्यादा बिजनेसमैन दिखने लगे हैं। शाहरुख तो एक बिजनेस पत्रिका के कवर पर भी अवतरित हो चुके हैं। अब वे स्टार के बजाय किसी प्रोडच्यूसर सरीखा व्यवहार करते ज्यादा नजर आते हैं। यही हाल आमिर का भी है। वे भूल रहे हैं कि इस तरह एक बड़ा प्रशंसक वर्ग तैयार नहीं किया जा सकता।
आम आदमी अमूमन रुपए-पैसों के गणित में उलझे रहने वाले शख्स को पसंद नहीं करता। लोग आम तौर पर बिजनेसमैन को पसंद नहीं करते। जब मैं छोटा था, तब अधिकतर फिल्मों में खलनायक गांव का महाजन या शहर का सफेदपोश साहूकार ही होता था। अब भारत की तस्वीर बदल गई है और लोगों के लिए पैसा कोई खराब चीज नहीं रह गई है, लेकिन हमारे देश का आम आदमी आज भी किसी अमीर आदमी के बजाय अपने हीरो को ही रुपहले परदे पर देखना पसंद करता है। पूरे दो दशक तक हमारे बॉलीवुड का हीरो एक ऐसा एंग्री यंग मैन रहा, जो सिस्टम से अकेले लड़ता था और अकेले ही गुनहगारों का पर्दाफाश भी कर देता था।
इसीलिए मैं एक बार फिर चुलबुल पांडे के बारे में सोच रहा हूं। मुझे कोई शक नहीं है कि दबंग किस तरह की फिल्म होगी। लेकिन मैं ऐसी फिल्मों को पसंद करता हूं, जिनमें कोई सिरफिरा किस्म का हीरो उतनी ही सिरफिरी किस्म की कहानी के साथ हमारे सामने आता है और परदे पर अजीबोगरीब हरकतें करते हुए दर्शकों का दिल जीत लेता है। आज सलमान से बेहतर इस काम को और कोई अंजाम नहीं दे सकता।
क्या मैं खुद कभी इस तरह की कोई फिल्म बनाऊंगा? शायद नहीं। क्या मैं आपको इस तरह की कोई फिल्म देखने का सुझाव दूंगा? कतई नहीं। लेकिन क्या मैं सीटियां बजाते, तालियां पीटते दीवाने प्रशंसकों के बीच किसी एकल ठाठिया टॉकीज में यह फिल्म देखने जाऊंगा? जी हां। फिल्म देखने के इस सबसे मजेदार अनुभव के लिए ही मैं पैसे खर्च करता हूं। यह मुझे अपने बचपन के दिनों की याद दिलाता है। यह मुझे उन फिल्मों की याद दिलाता है, जहां हमारी फिल्में निहायत ‘फिल्मी’ किस्म की हुआ करती थीं और हमारे फिल्मी हीरो कुछ भी कर सकते थे।
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Aug 21, 2010
फोर्थ इडियट को 'थ्री इडियट्स' का नोटिस
फिल्म 'थ्री इडियट' के प्रड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा ने आने
वाली फिल्म द फोर्थ इडियड को कॉपीराइट ऐक्ट के उल्लंघन पर लीगल नोटिस भेजा है।
गौरतलब है कि बिस्वरूप रॉय चौधरी ने कुछ दिन पहले 'द फोर्थ इडियट' नाम की फिल्म बनाने की घोषणा की थी। इस फिल्म के बारे में चौधरी ने एनबीटी ऑनलाइन को बताया कि मेरी फिल्म का संदेश है कि सफलता के लिए भेजे का इस्तेमाल करना चाहिए।
एक तरह से फिल्म ऑल इज वेल में आमिर के दिल की आवाज सुनने वाली बात को काटती है। फिल्म में एक गाना 'कर भेजे का इस्तेमाल...' बोल पर ही बेस्ड हैं।
विधु के भेजे नोटिस में कहा गया है कि 'द फोर्थ इडियट' फिल्म कॉपीराइट ऐक्ट का उल्लंघन है। नोटिस में विधु ने बिस्वरूप पर आरोप लगाते हुए कहा गया है कि वह मेरी फिल्म का नाम, उसकी कहानी आदि को अपनी आने वाली फिल्म 'द फोर्थ इडियट' के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
नोटिस में कहा गया है कि तत्कालिता से बिस्वरूप अपनी इस फिल्म के प्रमोशन/एडवर्टाइजिंग को बंद करें। द फोर्थ इडियट और उससे जुड़े इवेंट में थ्री इडियट का सहारा लेना गलत है। प्रिकॉशन के लिए नोटिस की एक कॉपी वर्ल्ड यूनिटी कंवेंशन सेंटर को भी भेज दी गई है। नोटिस बार बार उल्लेखित करता है कि कानूनी तौर पर कॉपीराइट राइट्स हमारे पास है और किसी भी तरह से इसका उल्लंघन करना गलत है
लेकिन फोर्थ इडियट के प्रड्यूसर और डायरेक्टर बिस्वरूप रॉय चौधरी ने इस नोटिस पर कहा है कि वह विधु को इस लीगल नोटिस का जवाब देंगे। साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी फिल्म का संडे को लखनऊ में वर्ल्ड प्रीमियर का आयोजन किया जा रहा है। बिस्वरूप कहते हैं, एक घंटे की अवधि वाली इस फिल्म को समर वैकेशंस में रिलोज करने का प्लान है।
मूवी के बारे में कहा गया था कि इस ऐनिमेटेड फिल्म की कहानी वहां से शुरू होती है, जहां से थ्री इडियट की कहानी खत्म होती है यानी फुंसुक वांगड़ू के स्कूल से। फिल्म दिखाती है कि जब फुंसुक उस स्कूल के प्रिंसिपल होंगे तो स्कूल किस तरह का हो जाएगा।
यह एक डफर लड़के पप्पू की कहानी है जो रनछोड़दास (आमिर का कैरक्टर) के सिखाई तकनीकों का प्रयोग कर असंभव से लगने वाले कामों को अंजाम देकर स्कूल का नंबन वन स्टूडेंट तो बनता ही है, साथ ही साथ चांद पर जाने के कठिन काम को भी सफलतापूर्वक अंजाम देता है।
फिल्म में चतुर की आवाज थ्री इडियट में चतुर रामालिंगम का कैरक्टर निभाने वाले ओमी वैद्य ने ही दी है। इस ऐनिमेशन फिल्म में दो गाने भी हैं। ओमी ने फिल्म में एंकरिंग के साथ-साथ गाना भी गाया है। दो करोड़ रुपये के बजट वाली इस फिल्म के प्रीमियर को लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल में करीब एक लाख बच्चों के बीच किया जाएगा।
वाली फिल्म द फोर्थ इडियड को कॉपीराइट ऐक्ट के उल्लंघन पर लीगल नोटिस भेजा है।
गौरतलब है कि बिस्वरूप रॉय चौधरी ने कुछ दिन पहले 'द फोर्थ इडियट' नाम की फिल्म बनाने की घोषणा की थी। इस फिल्म के बारे में चौधरी ने एनबीटी ऑनलाइन को बताया कि मेरी फिल्म का संदेश है कि सफलता के लिए भेजे का इस्तेमाल करना चाहिए।
एक तरह से फिल्म ऑल इज वेल में आमिर के दिल की आवाज सुनने वाली बात को काटती है। फिल्म में एक गाना 'कर भेजे का इस्तेमाल...' बोल पर ही बेस्ड हैं।
विधु के भेजे नोटिस में कहा गया है कि 'द फोर्थ इडियट' फिल्म कॉपीराइट ऐक्ट का उल्लंघन है। नोटिस में विधु ने बिस्वरूप पर आरोप लगाते हुए कहा गया है कि वह मेरी फिल्म का नाम, उसकी कहानी आदि को अपनी आने वाली फिल्म 'द फोर्थ इडियट' के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
नोटिस में कहा गया है कि तत्कालिता से बिस्वरूप अपनी इस फिल्म के प्रमोशन/एडवर्टाइजिंग को बंद करें। द फोर्थ इडियट और उससे जुड़े इवेंट में थ्री इडियट का सहारा लेना गलत है। प्रिकॉशन के लिए नोटिस की एक कॉपी वर्ल्ड यूनिटी कंवेंशन सेंटर को भी भेज दी गई है। नोटिस बार बार उल्लेखित करता है कि कानूनी तौर पर कॉपीराइट राइट्स हमारे पास है और किसी भी तरह से इसका उल्लंघन करना गलत है
लेकिन फोर्थ इडियट के प्रड्यूसर और डायरेक्टर बिस्वरूप रॉय चौधरी ने इस नोटिस पर कहा है कि वह विधु को इस लीगल नोटिस का जवाब देंगे। साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी फिल्म का संडे को लखनऊ में वर्ल्ड प्रीमियर का आयोजन किया जा रहा है। बिस्वरूप कहते हैं, एक घंटे की अवधि वाली इस फिल्म को समर वैकेशंस में रिलोज करने का प्लान है।
मूवी के बारे में कहा गया था कि इस ऐनिमेटेड फिल्म की कहानी वहां से शुरू होती है, जहां से थ्री इडियट की कहानी खत्म होती है यानी फुंसुक वांगड़ू के स्कूल से। फिल्म दिखाती है कि जब फुंसुक उस स्कूल के प्रिंसिपल होंगे तो स्कूल किस तरह का हो जाएगा।
यह एक डफर लड़के पप्पू की कहानी है जो रनछोड़दास (आमिर का कैरक्टर) के सिखाई तकनीकों का प्रयोग कर असंभव से लगने वाले कामों को अंजाम देकर स्कूल का नंबन वन स्टूडेंट तो बनता ही है, साथ ही साथ चांद पर जाने के कठिन काम को भी सफलतापूर्वक अंजाम देता है।
फिल्म में चतुर की आवाज थ्री इडियट में चतुर रामालिंगम का कैरक्टर निभाने वाले ओमी वैद्य ने ही दी है। इस ऐनिमेशन फिल्म में दो गाने भी हैं। ओमी ने फिल्म में एंकरिंग के साथ-साथ गाना भी गाया है। दो करोड़ रुपये के बजट वाली इस फिल्म के प्रीमियर को लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल में करीब एक लाख बच्चों के बीच किया जाएगा।
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Aug 13, 2010
पीपली लाइव-फिल्म REVIEW
फिल्म पीपली लाइव देश में किसानों की बढ़ती आत्महत्या के मामलों पर एक व्यंग है कि कैसे भ्रष्ट नेता सिर्फ वोट बटोरने में लगे रहते हैं और किस तरह इलेक्ट्रोनिक मीडिया एक आम आदमी के दर्द और तकलीफ मिर्च मसाला लगाकर अपने चैनल की टीआरपी बढ़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं|
फिल्म की कहानी है एक आम किसान नत्था की जो आत्महत्या करना चाहता है ताकि उसके मरने पर उसके गरीब परिवार को सर्कार से मुआवजा मिल जाये और उनपर से कर्ज का बोझ उतर जाए|नत्था का परिवार अपनी पुश्तैनी ज़मीन से हाथ धो बैठेगा अगर उसने बैंक को गिरवी रखी ज़मीन को नहीं छुड़ाया|अपनी पुश्तैनी ज़मीन को बचने के लिए नत्था कुछ भी करने को तैयार है क्योंकि उसके भाइयों के लिए यह ज़मीन बहुत मायने रखती है|
ऐसे में नत्था का बड़ा भाई नत्था को आत्महत्या करने के लिए उकसाता है और कहता है कि अगर वह आत्महत्या कर ले तो उसके मरने पर सरकार परिवार को मुआवजा देगी|सरकार ने ऐसा प्रावधान किया है कि अगर किसान परिवार का मुखिया आत्महत्या कर लेता है तो बदले में सरकार उसके परिवार को जीवन यापन के लिए उसके बदले में मुआवजा देती है|इस बात को आजकल हर इंसान के बेद रूम तक अपनी घुसपैठ रखने वाले मीडिया का एक आदमी सुन लेता है और फिर क्या उसके बाद नत्था आगे आगे मीडिया पीछेपीछे|
फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है जब नत्था को निशाना बनाकर नेता और मीडिया आपने अपने हितों की पूर्ति के लिए नत्था की आत्महत्या के मामले को भुनाते हैं| नत्था की आत्महत्या पर राजनितिक पार्टियां आपस में भीड़ जाती हैं|पीपली गांव में सत्ता पर काबिज पार्टी नत्था को टेलीविजन,हैंड पंप जैसे उपहार देती है और उसे मरने से पहले ही मुआवजे तक का एलान कर देती है|इससे विपक्षी पार्टी इस मामले को अपने हाथ से जाता देख नए दांवपेंच दिखाने में जुट जाती है|
फिल्म को काफी रियलिस्टिक अप्रोच से बनाया गया है|लोकेशंस और किरदारों का लुक तथा कपड़े एक गरीब गांव के निवासी की व्यथा को बखूबी दर्शाते हैं|निराश नत्था, स्वार्थी भाई बुधिया,नत्था की माँ और पत्नी सब किरदार इतने रियल लगते हैंमानो आप सच में एक आम किसान परिवार की कहानी को देख रहे हैं|मलाईका शिनॉय ने एक टी वी रिपोर्टर की भूमिका बखूबी निभाई है|
नत्था मरेगा या नहीं और उसके परिवार को मुआवजा मिलेगा या नहीं फिल्म में यह सस्पेंस अंत तक बरक़रार रहता है और यही दर्शकों को फिल्म से बांधे रखता है|सटीक कहानी और गांव देहात में अक्सर बोले जाने जुमले फिल्म के डायलॉग्स को और मजेदार बनाते हैं|पहली बार डायरेक्शन की कमान संभालने वाली अनुषा रिज़वी ने गंभीर मुद्दे को काफी बेहतरीन तरीके से पेश करने में सफलता पाई है |
आमिर खान के प्रो दक्षण में बन्ने की वजह से पहले से ही इस फिल्म से काफी उम्मीदें की जा रही थी| फिल्म की सरलता ही इस फिल्म की जान है और यह उन लोगों को भी आकर्षित करेगी जो गंभीर विषयों पर बनने वाली फिल्मों को ज्यादा पसंद नहीं करते|महंगाई डायन और चोला माटी का जैसे गाने बहुत ही बढ़िया हैं|फिल्म का अंत बेहद साधारण तरीके से हो जाता है और किसानों की आत्महत्या की व्यथा को दर्शा जाता है|
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