Feb 10, 2013

MOVIE REVIEW: स्पेशल छब्बीस है बिल्कुल स्पेशल

कुछ फिल्मों से हमारी खासी अपेक्षाएं होने के बावजूद उनके प्रति हमारे मन में एक डर बना रहता है। इस डर को केवल वही समझता है, जिसने अपनी जिंदगी का एक खासा हिस्सा इस अभिनेता की बेसिर-पैर की फिल्में देखते हुए बिताया है। लेकिन यदि किसी फिल्म का प्रोमो आकर्षक होता हो और यदि कहानी में दम हो, तो हम सोच भी नहीं कर सकते कि कोई सितारा अपनी स्टार पावर से उस फिल्म् को कितनी कामयाबी दिला सकता है। फिल्म शुरू होते ही हम एक पंजाबी शादी का दृश्य देखते हैं, जिसमें परंपरागत रूप से भांगड़ा और गिद्दा चल रहा है और ‘मर जावां’ और ‘सोणिये’ जैसे शब्दों का इफरात से इस्तेमाल किया जा रहा है। हम मायूस होने लगते हैं, लेकिन मन में उम्मीद कायम रखते हैं। हीरोइन (काजल अग्रवाल) की नजर हीरो पर पड़ती है। उसका परिवार किसी और से उसकी शादी कर रहा है, लेकिन वह जानती है कि मंडप में कदम रखने से पहले ही हीरो उसे ले उड़ेगा। लेकिन मुझे आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि इस फिल्म का इस रोमांस कथा से कोई खास लेना-देना नहीं है। यह एक समझदार फिल्म है और लगभग पूरे समय वह अपनी समझदारी को बरकरार रखती है। फिल्म के प्रोमोज जाहिर हैं। वे हमें इस फिल्म के बारे में तमाम जरूरी जानकारियां दे देते हैं। लुटेरों का एक समूह है और अक्षय उनके कान्फिडेंट मास्टरमाइंड हैं। अनुपम खेर उनके बूढ़े और नर्वस सहयोगी हैं। ये सामान्य किस्म के लोग मालूम होते हैं, जो खुद को सीबीआई के इन्वेस्टिगेटर्स बताते हैं। वे लोकल पुलिस वालों को फुसला लेते हैं, सरकारी गाड़ी में सवार हो जाते हैं, लुटियंस दिल्लीं में एक मंत्री के घर पर जा धमकते हैं और घर में छुपाकर रखी गई नोटों की गड्डियां बरामद कर लेते हैं। वे इस तमाम रकम को मेटल के सूटकेस में बंद कर लेते हैं, अपनी कार के ट्रंक में पैक कर लेते हैं, और इससे पहले कि मंत्री यह समझ पाए कि उसे दिनदहाड़े लूट लिया गया है, वहां से रफूचक्कर हो जाते हैं। मंत्री पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करता। वह कहता है कि यदि यह खबर फैल गई तो उसकी नेतागिरी पर सवालिया निशान लग जाएंगे। लेकिन इस फर्जी छापे की खबर पर चुप्पी साधे रखने की असल वजह दूसरी है। चुराया गया पैसा गैरकानूनी है। दो गलत मिलकर सही नहीं हो सकते। आखिर आप किसी ऐसी रकम की लूट की रिपोर्ट कैसे दर्ज करा सकते हैं, जो आपके पास होना ही नहीं चाहिए थी? यह बहुत शातिर प्लान था, जिसे बहुत सफाई के साथ अंजाम दिया गया। लुटेरों का यह समूह इसी तरह कभी-कभी मिलता है और अनेक अन्य सरकारी एजेंट्स के यहां छापे मारता रहता है। फिल्म में हम उन्हें केवल दो बार हरकत में देखते हैं – एक बार नई दिल्ली में और दूसरी बार कलकत्ता में। तीसरी हरकत बंबई में होनी है, जहां फिल्म का क्लाइमेक्स होता है। साल है 1987, जब सफेद पगड़ी पहनने वाले ज्ञानी जैल सिंह भारत के राष्ट्रंपति हुआ करते थे। टाइम्स ऑफ इंडिया तब ब्लैक एंड व्हाइट अखबार हुआ करता था। फिल्मकार ने यह भी ध्यान रखा है कि 80 के दशक की दिल्ली को दिखाए। हमें कनॉट प्ले्स की सड़कों पर मारुति 800 और प्रीमियर पद्मिनी की कतारें नजर आती हैं। लेकिन शायद कलकत्ता आज से तीन दशक पहले भी ऐसा ही दिखता था, जैसा आज दिखता है। निर्देशक नीरज पांडे (ए वेडनेसडे फेम) ने ब्योरों पर बारीक नजर बनाए रखी है। तब रोटरी और लैंडलाइन फोन ही कम्यूनिकेशन का इकलौता साधन हुआ करते थे। यदि तब आज की तरह सेलफोन होते तो लुटेरों का यह समूह कामयाब नहीं हो सकता था। लेकिन इसके बावजूद सीबीआई का एक टॉप अधिकारी (एक धांसू रोल में मनोज बाजपेयी) इस मामले को अपने हाथ में लेकर उनकी जिंदगी मुश्किल बना देता है। उसे तीन लुटेरों को रंगे हाथों पकड़ना है। उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं। तब यह फिल्म चूहे-बिल्लीं की एक रोमांचक दौड़ बन जाती है और स्टीनवन स्पिलबर्ग की लाजवाब फिल्म 'कैच मी इफ यू कैन' (2002) की याद दिलाती है। फिल्म की कहानी तेज गति से आगे बढ़ती है और हमें सोचने तक का समय नहीं मिलता, जो अच्छा ही है। हम मुख्य किरदार के बैकग्राउंड के बारे में अब भी बहुत कम जानते हैं। हममें से बहुतेरे लोग आसानी से इन शातिर लुटेरों के शिकार बन सकते हैं और शायद किसी न किसी रूप में बने भी होंगे। फिल्म के इंटरवल के दौरान स्मोकिंग करते हुए दर्शक आपस में यही बतियाते पाए जाते हैं कि ऐसी ही कोई घटना उनके साथ बंबई में चेंबूर से झवेरी बाजार के दरमियान कहीं घटी थी। आखिर महाठग मिस्टर नटवरलाल को कभी कोई पकड़ नहीं सका था। यहां तक कि तब भी नहीं, जब वह अनेक बार ताजमहल को बेच चुका था। फिल्म 'बंटी और बबली' का एक दृश्य मिस्टर नटवरलाल के इस हुनर से ही प्रेरित था। इसमें कोई शक नहीं कि यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है।

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