Sep 28, 2010

TV channels bet on mega stars to garner Rs 270 crore

Three big-budget celebrity reality shows that will hit the idiot box this festive season are expected to garner over Rs 270 crore of advertising revenue — nearly 10 per cent of the total revenues that Hindi general entertainment channels (GECs) normally get in a year.

The three are Kaun Banega Crorepati 4 on Sony, anchored by Amitabh Bachchan; Bigg Boss 4 on Colors, starring Salman Khan; and Masterchef India on STAR Plus with Akshay Kumar. Hindi GEC channels, according to an Ficci-KPMG study, garner Rs 2,200 crore of ad revenues annually.



The channels have together forked out a little over Rs 100 crore just to get the celebrities to anchor the mega programmes. For them, the success or failure of these will determine who is on the top in viewership. Which will depend on whether these stars — who have not always set viewers on fire in anchoring earlier programmes — can show their earlier magic.

Amitabh Bachchan, hosting KBC 4, is charging around Rs 1.5 crore per episode, according to industry sources. At 36 episodes, he would pocket Rs 54 crore from the show. Akshay Kumar, donning the cook's cap in Masterchef India, would make around Rs 30 crore from the show, at between Rs 1.2 crore and Rs 1.5 crore per episode. Salman Khan in Bigg Boss 4 will earn Rs 17 crore, at Rs 1.2 crore per episode of appearance. While Bigg Boss 4 will be on air for 96 episodes, Salman is expected to make only 14 appearances.

The three stars have not only raised their fee but also swapped channels this season. While Bachchan will be seeing a completing his multiple channel tour with Sony (he had earlier appeared in STAR Plus and Colors as show host), Salman has moved from Sony (where he hosted Dus Ka Dum) to Colors. Akshay Kumar has moved to STAR Plus from Colors, where he hosted Khatron Ke Khiladi.

STAR POWER
Show Anchor Number of
episodes to
appear in Fee
charged
(Rs crore)
KBC 4 (Sony) Amitabh Bachchan 36 54
Big Boss 4
(Colors) Salman Khan 14 17
Masterchef
India (Star Plus) Akshay Kumar 22 30

The fees of these three have jumped by almost 50 per cent since they made their TV debut. When KBC was launched in 2000, Bachchan used to get Rs 75-80 lakh per episode; it went up to Rs 1 crore each for KBC2. When he hosted Bigg Boss last year, he charged Rs 1 crore per episode. Akshay Kumar made his TV debut with Rs 80 lakh per episode for the first season of KKK, which went up to Rs 1 crore in the second season of the show. Salman Khan charged Rs 80 lakh per episode for the first season of Dus ka Dum, which went up to Rs 1 crore per episode in the second season.

Ratings drop
However, the TV ratings (TVR) of the shows have not grown in proportion. During the first season in 2000, KBC clocked an average TVR of 9.8 and the second one of 10.6 — a feat not repeated on Indian television. The third season, with Shah Rukh Khan as host, recorded an average of just 6.8. Considering that a show with a TRP of 5 is considered a hit today, due to the increase since in the number of channels, there is still steam left in the show, say industry observers.

Salman Khan’s Dus Ka Dum had seen a fall in ratings from an average TVR of 2.35 in the first season to 1.96 in the second one. Fear Factor I, hosted by Akshay Kumar, had an average TVR of 2.48 and the second season scored a higher one of 3.3.

Madison World’s chairman and managing director, Sam Balsara, attributes the drop in TVRs to the growing fragmentation in TV space. “As the number of channels available to viewers has gone up manifold, there has been a general downward trend in ratings,” he says.

Media planners said for advertisers there will not be a viewership fragmentation, as these shows will be aired on different timings. Master Chef will be aired on Saturday and Sunday at 9 pm from October 16. KBC 4 will be aired from October 11 at 9 pm, Monday to Thursday. Big Boss 4 begins on October 3 and will be aired at 9 pm.

Industry sources say 10-second ad slots for KBC 4 have been sold for Rs 3.5 lakh each and ad time on Colors and STAR Plus have been sold in a similar range.

“Although Salman Khan is pitted against Amitabh Bachchan, there will not be a fragmentation in viewership, as both stars have a huge fan following,” a media planner said.

डोंगल (Dongle) क्या होता hai


डोंगल वर्ड आपने कई बार सुना होगा। दरअसल डोंगल एक छोटी यूएसबी ड्राइव होती है जिसे कंप्यूटर से कनेक्ट करके सेफली कोई सॉफ्टवेयर रन करवाया जा सकता है। जहां सिक्योरिटी की जरूरत सर्वाधिक होती है वहीं इसे यूज किया जाता है। डोंगल का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है ताकि गैरकानूनी ढंग से सॉफ्टवेयर चोरी न हो।

लेटेस्ट टेक्नॉलॉजी बेस्ड डोंगल फ्लैश ड्राइव की तरह आसानी से कैरी किए जा सकते हैं। डोंगल को पहली बार 1980 में वर्डक्राफ्ट प्रोग्राम पर यूज किया गया था।

iPO की राह में रिटर्न के साथ करें जोखिम की फिक्र

मुंबई : हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि बाजार की चाल के बारे
में अनुमान लगाना असंभव है। लेकिन बाजार को लेकर कुछ ऐसी चीजें हैं, जिसके बारे में आप भविष्यवाणी कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर जब भी शेयर बाजार नई ऊंचाइयां छूने के करीब पहुंचता है तो बड़ी संख्या में इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग (आईपीओ) की लंबी कतार लग जाती है।

कोल इंडिया (भारतीय शेयर बाजार का सबसे बड़ा आईपीओ होगा और इसका आकार 14,000 करोड़ रुपए का होगा) के अलावा वा टेक वाबग (वाटर मैनेजमेंट कंपनी), तिरुपति इंक्स, इरोज इंटरनेशनल, माइक्रोसेक कैपिटल जैसी कई छोटी कंपनियां पूंजी जुटाने के लिए बाजार में उतरी हैं।

इनवेस्टमेंट बैंकरों का कहना है कि आने वाले महीनों में कई और कंपनियां पूंजी जुटाने के लिए बाजार में उतर सकती हैं। आईसीआईसीआई के ईडी अनूप बागची का कहना है, 'बाजार में निवेशकों की रुचि बनी हुई है और ऐसे में पिछले काफी समय से पेंडिंग पड़े आईपीओ बाजार में आ सकते हैं।' स्त्रेई कैपिटल मार्केट्स के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर अशोक पारीख का कहना है, 'सेकेंडरी मार्केट में सुधार आ रहा है। जिन कंपनियों के प्रास्पेक्टस को सेबी की मंजूरी मिल चुकी है और जो इंतजार कर रहे हैं, वे कोल इंडिया के आईपीओ के बाजार में आने से पहले अपने हाथ आजमाएंगे।'

घरेलू शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाइयां छूने के करीब है और ऐसे में कई निवेशक इसमें अपनी किस्मत आजमाने के लिए फिर से बाजार में उतर चुके हैं। इनमें से कई निवेशकों को प्राइमरी मार्केट(आईपीओ) काफी लुभाता है। उनका मानना है कि आईपीओ एक जैकपॉट की तरह है, जिसमें आप किसी इश्यू को सब्सक्राइब करते हैं और जब कंपनी लिस्ट हो जाती है तो उसे बेच देते हैं।

इनका मानना है कि इस साधारण निवेश नीति पर दांव लगाकर ट्रेडर कुछ हफ्तों में अच्छा खासा मुनाफा बना सकते हैं। हालांकि, जल्द मुनाफा कमाने की यह रणनीति आपको महंगी भी पड़ सकती है। साल 2009 के बाद से 58 कंपनियां आईपीओ बाजार में उतरी हैं। इन 58 कंपनियों में से 22 कंपनियों के शेयर अब भी ऑफर प्राइस के नीचे ट्रेड कर रहे हैं, जबकि करीब 17 कंपनियों ने लिस्टिंग के बाद से निवेशकों को या तो कोई रिटर्न नहीं दिया है या फिर निवेशक ऐसे इश्यूज में अभी घाटे में ही चल रहे हैं।

ऐसे में आईपीओ के जरिए जल्द मोटा मुनाफा कमाने की रणनीति फ्लाप साबित होती है। हालांकि, इसी अवधि में सात आईपीओ ने निवेशकों को 100 फीसदी से ज्यादा रिटर्न दिया है। आईपीओ से रिटर्न हासिल करने के ये आंकडे़ क्या आपको कुछ सबक देते हैं? अगर हां तो वह यह है कि आईपीओ जल्द मुनाफा कमाने का जरिया नहीं हैं। अगर आप आईपीओ से पैसा बनाना चाहते हैं तो दूसरे शेयरों पर दांव लगाने की तरह इसमें भी आपको अपना होम वर्क पूरा करना होगा।

आईपीओ पर दांव लगाने से पहले आपको कंपनी की कारोबारी विश्वसनीयता और उसकी सही प्राइसिंग का अंदाजा लगाना होगा। इसके अलावा आपको यह बात भी तय करनी होगी कि आप आईपीओ से लिस्टिंग गेन हासिल करना चाहते हैं या फिर शेयर की फुल वैल्यू पाने के लिए उसे लंबी अवधि तक शेयर के रूप में होल्ड करना चाहते हैं। आईपीओ पर दांव लगाने से पहले ये बातें आपके लिए काफी मददगार साबित हो सकती हैं।

सबसे पहले आपको यह बात ध्यान में रखने की जरूरत होती है कि आईपीओ में निवेश करना किसी शेयर पर पैसा लगाने जैसा ही होता है। ऐसे में कंपनी के फंडामेंटल के बारे में जानना बहुत जरूरी है। इसमें आपको कंपनी की वित्तीय स्थिति, कंपनी किसी क्षेत्र में काम करती है, इंडस्ट्री में उसकी अहमियत क्या है, इत्यादि के बारे में जानकारी जुटानी होगी। इसके अलावा आपको कंपनी के मौजूदा प्रमोटरों और निवेशकों का भी पता होना चाहिए।

Sep 27, 2010

मुनाफा कमाने वाले शेयरों की पहचान करने का मंत्र

संस्थागत निवेशक आम निवेशकों की
ओर से होने वाली खरीद-फरोख्त पर बड़ा असर डालते हैं, क्योंकि उनके पास ऑर्डर को सपोर्ट करने के लिए ज्यादा पैसा होता है और इससे शेयर पर पड़ने वाला प्रभाव और भी बढ़ जाता है।' वॉल स्ट्रीट के एक जाने-माने कमेंटेटर के ये शब्द इक्विटी बाजारों में संस्थागत निवेशकों की अहमियत रेखांकित करते हैं। संस्थागत निवेशक बाजार के अच्छे विश्लेषकों को आसानी से अपने साथ जोड़ लेते हैं और निवेश संबंधी शोध तक भी उनकी अच्छी पहुंच होती है। इसके चलते जब भी मल्टी-बैगर शेयर तलाशने की बारी आती है तो वे दूसरों से आगे नजर आते हैं।

इसके अलावा ज्यादातर मामलों में ये निवेशक लंबे वक्त तक अपनी पोजीशन बरकरार रखते हैं। इसलिए यह जानना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि संस्थागत निवेशक किन शेयरों की खरीद कर रहे हैं और कौन से शेयर उनकी प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। छोटे निवेशकों को सर्तकता तो बरतनी चाहिए और निवेश का कोई भी फैसला करने से पहले पर्याप्त होमवर्क कर ही लेना चाहिए, लेकिन अगर वे इसके साथ संस्थागत गतिविधियों पर भी एक नजर डाल लें तो उन्हें निवेश के बुनियादी विचार की झलक मिल जाएगी।

संस्थागत निवेशक मोटे तौर पर म्यूचुअल फंड, बीमा और पेंशन प्रोवाइडर पर ध्यान केंद्रित करते हैं। बीते कुछ वर्षों से भारतीय इक्विटी में संस्थागत निवेशकों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के आंकड़ों के मुताबिक, अगस्त 2010 को खत्म हुए आठ महीनों में उन्होंने 59,724 करोड़ रुपए की खरीदारी की है। यह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 48 फीसदी ज्यादा है। आमतौर पर रिसर्च पर उनका काफी फोकस होता है और निवेश की उनकी रणनीति मध्यम से लंबी अवधि के लिए होती है।

इसका मतलब यह हुआ कि वे उन्हीं शेयरों में निवेश करते हैं जिनमें मध्यम अवधि के लिए वृद्धि की अच्छी संभावना हो। छोटा निवेशक कंपनी के भावी कारोबार से डिस्काउंटेड कैश फ्लो (डीसीएफ) जैसी निवेश की आधुनिक तकनीकों से परिचित नहीं होता। इसलिए लंबी अवधि के निवेश के लिए संस्थागत निवेशकों के निवेश के चलन पर निगाह बनाए रखना ज्यादा सरल तरीका है।

बाजार में ये छोटी कंपनियां कर सकती हैं बड़ा कमाल

कामयाबी
छोटी हो या बड़ी, उसकी खुशी मनाने की जरूरत होती है। इसी बात पर विश्वास करते हुए ईटी इंटेलीजेंस गुप हर साल भारतीय उद्योग जगत की 100 सबसे तेजी से बढ़ती छोटी कंपनियों की सूची जारी करता है। यह आज की तेज रफ्तार छोटी कंपनियां ही हैं, जो कल के दिग्गजों में उभरने का दमखम रखती हैं।

लेकिन इसके साथ एक चेतावनी भी आती है। निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि इंडिया इंक के इन छोटे उस्तादों में से कौन से आने वाले वक्त की ग्रां प्री में शामिल होंगे। जैसा कि कहा जाता है कि अतीत का प्रदर्शन इस बात की गारंटी नहीं होता कि भविष्य में किस तरह का प्रदर्शन रहेगा। लेकिन ऐतिहासिक चलन के आधार पर हम यह पता लगा सकते हैं कि किस तरह की कंपनियां बड़ा बनने की संभावनाएं रखती हैं।

अतीत के निरंतर ठोस प्रदर्शन की वजह से ईटीआईजी की 100 तेजी से बढ़ती छोटी कंपनियों की हालिया सूची में शामिल खिलाड़ी इस दौड़ में अव्वल आने के मजबूत दावेदार हैं। निवेशकों को और अध्ययन करने के आधार पर सूची से बेहतरीन दिखने वाले शेयर चुनने चाहिए या फिर बाजारों में अगली पंक्ति में खड़े होने के लिए हमारे चयन के आधार पर पोर्टफोलियो तैयार करना चाहिए।

शेयर बाजार के दिग्गज

धमाकेदार वित्तीय प्रदर्शन, निवेशकों का भरोसा जीतने के लिहाज से काफी अहम चीज है। यह इस बात से साबित होता है कि 100 तेजी रफ्तार छोटी कंपनियों की ईटीआईजी की 2009 की सूची में से 77 कंपनियों ने बीते एक साल के दौरान बेंचमार्क इंडेक्स को अपने प्रदर्शन से पीछे छोड़ दिया है। इसके अलावा 27 कंपनियों के शेयर भाव इस अवधि में बढ़कर दोगुने स्तर पर पहुंच चुके हैं।

सूची की शीर्ष 10 कंपनियां शामिल कर बनाए जाने वाले पोर्टफोलियो ने निवेशकों को 59 फीसदी रिटर्न दिया होता, जबकि बाजार ने इस दौरान 21 फीसदी का मुनाफा दिया है। शीर्ष 25 कंपनियों के पोर्टफोलियो ने 61 फीसदी रिटर्न कमाया है। और इन सभी 100 कंपनियों के समान वेटेज से बना पोर्टफोलियो वैल्यू के लिहाज से आज 73 फीसदी ऊपर होता। वास्तव में यह धमाकेदार प्रदर्शन है।

नए नायक

ईटीआईजी 2010 की 100 तेजी से बढ़ती छोटी कंपनियों की फेहरिस्त में जाइडस वेलनेस ने सभी को पीछे छोड़ दिया है। यह पिछले साल चौथे पायदान से शीर्ष स्तर तक पहुंची है। इस शेयर को कैडिला हेल्थकेयर के कंज्यूमर हेल्थकेयर कारोबार के विलय से काफी फायदा हुआ है और यह कंपनी कर्ज-मुक्त और नकदी के मामले में अमीर खिलाड़ी बनी हुई है।

हाल में सूचीबद्ध होने वाली टेकनेफैब इंजीनियरिंग दूसरे स्थान पर है, जिसका श्रेय बीते तीन साल के दौरान मुनाफे में प्रभावशाली बढ़त को जाता है। लेकिन वह कंपनी हॉकिंग कूकर्स है, जिसने सूची के शीर्ष पांच दिग्गजों में सबसे ज्यादा हैरत में डाला है। पिछले साल फेहरिस्त में 19वें पायदान तक गिरने के बाद कंपनी ने इस बार शीर्ष तीन में जगह बनाई है।

कारोबारी साल 2010 के दौरान मुनाफे में बढ़िया ग्रोथ ने कंपनी को मैन इंफ्राकंस्ट्रक्शंस, विनाती ऑगेर्निक्स और वीएसटी टिलर्स ट्रैक्टर्स के आगे पहुंचा दिया। विनाती ऑर्गेनिक्स पिछले साल के 14वें रैंक से इस साल आठवें नम्बर तक आई है, जबकि वीएसटी टिलर्स 27वें पर थी, लेकिन इस बार 12वें पायदान पर है।

हालांकि, कुछ कंपनियों ने पिछले साल की तुलना में जमीन भी खोई है। 2009 की सूची में तीसरे नम्बर पर खड़ी टाटा स्पॉन्ज आयरन इस साल 20वें पायदान तक लुढ़क गई है। इसी तरह प्राज इंडस्ट्रीज पिछले साल 10वें नम्बर पर खड़ी थी, लेकिन इस साल हैरानी में डालते हुए सूची में 83वें पायदान तक पहुंच गई है। पिछले साल टॉपर रही सुल्जर इंडिया हाल में डीलिस्ट हो गई है और इसलिए इस बार सूची में जगह बनाने में कामयाब नहीं हुई।

अन्य कंपनियों में ब्लिस जीवीएस फार्मा ने चौथे नम्बर पर सीट कब्जाते हुए सूची में बढ़िया एंट्री की है। हाल में सूचीबद्ध हुई एक अन्य कंपनी मैन इंफ्रा सीधे तौर पर सूची में दाखिल होकर पांचवें पायदान पर पहुंच गई है। अतीत में कमजोर इंटरेस्ट कवरेज रेशियो की वजह से पिछले साल सूची में शामिल होने में नाकाम रही प्लास्टिक उत्पाद बनाने वाली मयूर यूनिकोटर्स इस बार प्रतिष्ठित फेहरिस्त तक पहुंच गई है। कंपनी सूची में सातवें स्थान पर है। हाल में लिस्टेड हुई कंपनियों के बारे में और जानने के लिए ईटी इनवेस्टर्स गाइड के आगामी संस्करणों पर निगाहें बनाए रखें।

हमने कैसे तैयार की सूची?

कंपनियों की सूची तैयार करने के लिए हमने कारोबारी साल 2010 के दौरान 1,000 करोड़ रुपए से कम शुद्ध बिक्री रखने वाली फर्मों को इसमें शामिल किया है। संदेहास्पद विश्वसनीयता रखने वाली छोटी कंपनियों को इसके दायरे से बाहर रखने के उद्देश्य से हमने उन कंपनियों को फेहरिस्त से बाहर कर दिया, जिनका माकेर्ट कैपिटलाइजेशन 50 करोड़ रुपए से कम है।

अंतिम सूची में ऐसी कंपनियां शामिल हैं, जो बीते तीन साल के दौरान आरओसीई 15 फीसदी से ज्यादा, बीते तीन साल में डीईआर 1.5 से कम और आईसीआर 5 से ऊपर रखने में कामयाब रही हैं। पिछले तीन साल के दौरान एकबार से ज्यादा लाभांश न देने वाली या चूकने वाली कंपनियों और एक साल से ज्यादा वक्त तक नेगेटिव ऑपरेटिंग कैश फ्लो वाले खिलाडि़यों को भी बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया। इसके बाद हमारे पास मजबूत वित्तीय स्थिति वाली केवल 140 कंपनियां बचीं। क्योंकि हम सबसे तेज बढ़ती छोटी कंपनियों को चिन्हित करने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए हमने इन सभी कंपनियों के लिए बिक्री और मुनाफे की वेटेड औसत बढ़त दरों का आकलन किया।

सबसे ज्यादा अहमियत कारोबारी साल 2010 की ग्रोथ को दी गई। आखिरकार, तीन साल की बिक्री और मुनाफे की बढ़त और आरओसीई को 30:30:40 का वेटेज दिया गया, जिसके बाद अंतिम रैंकिंग का फैसला किया गया।

हमने ऐसी कंपनियों को भी न चुनने का फैसला किया, जिन्होंने तेज ग्रोथ तक पहुंचने के लिए अपनी बैलेंस शीट पर अतिरिक्त दबाव झेला। हमारी सूची में नकदी जुटाने में मजबूती रखने वाली, नियमित लाभांश देने वाली और बैलेंस शीट पर कर्ज का बोझ कम रखने वाली कंपनियां शामिल हैं। ये कंपनियां फंड के खर्च की तुलना में कारोबार में निवेश की गई रकम पर कहीं ज्यादा पूंजी कमाने में कामयाब हो रही हैं। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कर्जदाताओं और इक्विटी साझेदारों को भुगतान करने के बाद भी उनके पास कारोबार में दोबारा निवेश करने के लिए रकम बची रहेगी। कम कर्ज और ज्यादा इंटरेस्ट कवरेज गाढ़े वक्त में उनका सतत प्रदर्शन सुनिश्चित करेगा।

इन कंपनियों ने सूची में जगह बनाने के लिए निरंतर बेहतरीन प्रदर्शन किया है। लेकिन याद रखिए कि हमारी 100 सबसे तेजी से बढ़ती छोटी कंपनियों की सूची, कोई अकेला निवेश ट्रिगर नहीं है। यह निवेश से जुड़ा अध्ययन शुरू करने के लिए प्रवेश बिंदु जरूर मुहैया कराता है। इसलिए निवेश करते रहिए...

1,400 करोड़ रुपए से ज्यादा में बिका दुनिया का सबसे कीमती फ्लैट

लंदन : मोनैको स्थित दुनिया के सबसे कीमती फ्लैट 20 करोड़ पाउंड में बिक्री हो गई है।
फ्लैट के मुख्य कमरे में पूर्व मालिक की रहस्यमय हत्या के बावजूद इसकी इतनी अधिक कीमत मिली है।

अखबार 'डेली मेल' के मुताबिक खाड़ी देश के एक निवेशक ने 97 सालों की लीज पर 24 करोड़ यूरो (19.9 करोड़ पाउंड) में इस फ्लैट को खरीदा है। माना जा रहा है कि यह निवेशक अरब का एक शेख है।

इस फ्लैट में एक लाइब्रेरी, स्वीमिंग पूल और सिनेमा स्क्रीन सहित सभी कुछ है। ऐसा माना जा रहा है कि संपत्ति विक्रेता क्रिश्चन और निक कैंडी को इस सौदे में कम से कम 19 लाख पाउंड का फायदा हुआ है। उन्होंने वर्ष 2000 की शुरुआत में एक ब्रिटिश महिला लिली साफ्रा से 17,500 वर्ग फीट का तीन बेडरूम वाला यह फ्लैट खरीदा था। बैंक में काम करने वाले साफ्रा के पति एडमंड की इस फ्लैट में लगी रहस्यपूर्ण आग में मौत हो गई थी। उस समय इसकी कीमत मुश्किल से एक करोड़ पाउंड थी।

क्या है एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग

एनएसई-बीएसई के बीच एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग विवाद सुलझने के आसारक्या है एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग कंप्यूटर प्रोग्राम या एक खास तरह के सॉफ्टवेयर के माध्यम से की जाने वाली शेयरों की खरीद-बिक्री एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग कहलाती है। इस तरह के सॉफ्टवेयर को उचित शेयरों की पहचान और उनकी खरीद-बिक्री के लिए इंसान की जरूरत नहीं होती। ये कंप्यूटर प्रोग्राम खुद यह तय करते हैं कि कब, कहां और किस शेयर का कारोबार करना है। साल 2008 से डायरेक्ट मार्केट एक्सेस की अनुमति मिलने के बाद एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिला है। मिली सेकंड के भीतर ही ऐसे सॉफ्टवेयर आर्बिट्रेज के मौको की तलाश कर सौदों को अंजाम दे डालते हैं।

स्मार्ट ऑर्डर राउटिंगअगर कोई शेयर दो एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध है तो संभव है कि किसी एक एक्सचेंज पर उसकी कीमत अपेक्षाकृत कम हो। स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग आपके लिए बेहतर कीमत की तलाश करता है और उस समय जहां बेहतर कीमत होती है वहां ऑर्डर भेजता है।

एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग के मसले पर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में महीनों से चल रहा विवाद अब सुलझता नजर आ रहा है। हाल ही में सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों और बाजार प्रतिभागियों से प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर एक सर्कुलर जारी किया है जिसके अनुसार स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग (एसओआर) सुविधा की पेशकश करने वाले ब्रोकर को स्टॉक एक्सचेंजों के पास आवेदन करना होगा साथ ही स्टॉक ब्रोकर को एसओआर सिस्टम और सॉफ्टवेयर की थर्ड पार्टी सिस्टम ऑडिट रिपोर्ट भी उपलब्ध करानी होगी। ऐसे सिस्टम ऑडिटरों की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज अपने ब्रोकर को उपलब्ध कराएंगे। सेबी के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सभी निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा।

एक बड़ी ब्रोकिंग कंपनी के निदेशक ने बताया कि एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने वाले दोनों एक्सचेंजों के बीच के कीमतों का लाभ उठा सकेंगे। आम तौर पर बड़े वित्तीय संस्थान एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं। एल्गोरिद्मिक सॉफ्टवेयर संबद्ध एक्सचेंजों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर सेकंड के 100वें हिस्से में बाजार में उपलब्ध कीमतों में अंतर का लाभ उठाते हुए शेयरों की खरीद-बिक्री काफी तेज गति से करता है। यह सॉफ्टवेयर स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग का इस्तेमाल करता है।

हालांकि, सेबी के सर्कुलर के अनुसार एसओआर सभी वर्ग के निवेशकों के लिए उपलब्ध होगा और सदस्यों को क्रियान्वयन की सबसे अच्छी नीति अपनानी होगी। आर्बिट्रेज का उल्लेख सर्कुलर में नहीं किया गया है और इसलिए यह एसओआर का हिस्सा नहीं भी हो सकता है। सेबी के सर्कुलर के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के तहत दिए गए ऑर्डर के लिए स्टॉक एक्सचेंज विशेष पहचान संख्या उपलब्ध कराएंगे। इसके अतिरिक्त स्टॉक एक्सचेंजों को स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग सिस्टम के ऑर्डर और कारोबार के आंकड़े रखने पड़ेंगे। सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग लागू होने के तीन महीने के भीतर बाजार में जारी किए जाने वाले मार्केट डेटा के टाइम स्टांपिंग की प्रणाली हो। साथ ही स्टॉक एक्सचेंजों कोबाजार शुरू होने से पहले अपने सिस्टम क्लॉक को एटॉमिक क्लॉक के हिसाब से दुरुस्त करना होगा।

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की प्रवक्ता दिव्या मलिक लाहिरी ने बताया कि बीएसई के मार्केट डेटा पर टाइम स्टाम्प नहीं होने की वजह से एनएसई की प्रणाली स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग को क्रियान्वित होने से रोक रही थी। एनएसई काफी समय पहले से मार्केट डेटा की स्टांपिंग करता आ रहा है। सेबी के दिशानिर्देशों के बाद बीएसई भी अब मार्केट डेटा की स्टांपिंग करेगा। फिर, ऑर्डर के क्रियान्वयन में बाधा नहीं आनी चाहिए।

बीएसई के डिप्टी सीईओ आशीष कुमार चौहान के अनुसार, स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग पर सेबी का सर्कुलर आने के बाद न केवल एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलेगा बल्कि एक छोटे निवेशक को भी स्मार्ट ऑर्डर राउटिंग से सही भाव पर शेयरों की खरीदारी करने का अवसर मिलेगा। मुझे उम्मीद है कि एक महीने में सारा मामला सुलझ जाना चाहिए। साल 2008 में डायरेक्ट मार्केट एक्सेस यानी डीएमए की अनुमति मिलने के बाद एल्गोरिद्मिक ट्रेडिंग को बढ़ावा मिला है। डीएमए में ग्राहक और एक्सचेंज के बीच ब्रोकर की दखलंदाजी नहीं होती है।

जानिए क्या होता है टीजर लोन

इन दिनों टीजर लोन की चर्चा खूब है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इसकी काफी पब्लिसिटी की और इललिए यह काफी लोकप्रिय भी हो गया है। आइए हम बताते हैं कि टीजर लोन दरअसल है क्या टीजर लोन शुरूआती तौर पर एक सस्ता लोन है। इसके तहत कुछ समय तक यानी दो या तीन सालों के लिए ब्याज दरें निश्चित कर दी जाती हैँ। कुछ मामलों में यह पांच साल भी हो सकता है। लेकिन इसके बाद ब्याज दरें बढ़ जाती हैँ। इसमें ब्याज दरें जान बूझकर कम रखी जाती हैँ ताकि ग्राहकों को ललचाया जा सके। बाद में इसकी दरें बढ़ा दी जाती हैं या इसे फ्लोटिंग रेट में ट्रांसफर कर दिया जाता है। इस तरह के लोन के खिलाफ आलोचकों का कहना है कि यह कर्ज लेने वालों को बरगलाने के लिए है। शुरू में तो उन्हें कम ब्याज में लोन मिल जाता है लेकिन दीर्घकाल में उन्हें घाटा हो सकता है क्योंकि उन्हें फ्लोटिंग रेट पर लोन लेना होगा। उस समय के रेट ज्यादा भी हो सकते हैँ। लेकिन अगर रेट नहीं बढ़े तो ग्राहकों को फायदा हो सकता है लेकिन यह देखते हुए कि हाउसिंग लोन लंबे समय के लिए लिये जाते हैं ब्याज दरों के बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना नामुमकिन है।


हालांकि रिजर्व बैंक ने इस तरह के लोन पर किसी तरह का बयान जारी नहीं किया है लेकिन उसने इसकी बढ़ती प्रवृति पर चिंता जताई है।

Sep 11, 2010

इडियट्स' को पीछे छोड़ देगी 'दबंग'!


त्‍यौहारों के मौके पर रिलीज हुई सलमान खान की फिल्‍म ‘दबंग’ शुरुआती दिन ही बॉक्‍स ऑफिस पर जबरदस्‍त हिट रही। करीब 18 करोड़ रुपए की लागत से बनी यह फिल्‍म 40 करोड़ रुपए में डिस्‍ट्रीब्‍यूटर्स के हाथों बिक गई। देश भर में 1300 सिनेमाघरों में रिलीज हुई दबंग शुक्रवार को रिलीज के दिन 97 फीसदी हाउसफुल रही।

ईद के मौके पर रिलीज दबंग को आमिर खान की 'थ्री इडियट्स' की तरह कामयाबी मिलने की उम्‍मीद की जा रही है। अगर पिछले कुछ समय में आई कुछ फिल्मों से तुलना करें तो दबंग की ओपनिंग थ्री इडियट्स के करीब रही। हालांकि खुद सलमान की ही ईद पर रिलीज हुई ‘वांटेड’ ने सफलता के झंडे गाड़े थे। दबंग फिल्म की हाइप और दर्शकों के क्रेज को देखते हुए सभी मल्टीप्लेक्सों ने इसे प्रमुखता दी और नंबर ऑफ शोज भी बढ़ा दिए। बावजूद इसके फिल्‍म के टिकटों के लिए मारामारी रही।

पिछले साल क्रिसमस के मौके पर रिलीज हुई थ्री इडियट्स ने 41 करोड़ रुपए की ‘वीकेंड ओपनिंग’ कर रिकार्ड बनाया था। जानकारों का कहना है कि सब कुछ ठीक रहा तो दबंग, थ्री इडियट्स को भी पीछे छोड़ देगी। ‘फिल्‍म इंफॉर्मेशन’ के एडिटर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘फिल्‍म की वीकेंड ओपनिंग के अंतिम आंकड़ें आने तक यह संभव है।’

’ट्रेड गाइड’ के एडिटर तरण आदर्श कहते हैं कि दबंग पहले वीकेंड पर 45 करोड़ रुपए की कमाई करेगी और इस तरह कलेकशन के मामले में थ्री इडियट्स को पीछे छोड़ देगी। उन्‍होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर यह इस साल की सबसे सुपरहिट फिल्‍म साबित होगी। सबसे बड़ी बात है कि यह फिल्‍म थ्री इडियट्स को तगड़ी टक्‍कर दे रही है। यह फिल्‍म सिनेमाघरों के साथ साथ मल्टीप्लेक्सों में भी धूम मचा रही है।

बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता शत्रुध्‍न सिन्‍हा की बेटी सोनाक्षी इस फिल्‍म के जिरए पहली बार फिल्‍मों पर कदम रख रही हैं। अन्‍य कलाकारों में मलाइका अरोड़ा खान आइटम गर्ल की भूमिका में हैं तो विनोद खन्‍ना, डिम्‍पल कपाडि़या, सोनू सूद जैसे कलाकार भी हैं। दिल्‍ली-एनसीआर में इस फिल्‍म के 250 प्रिंट बिके हैं। यह फिल्‍म मेट्रो से इतर छोटे शहरों में भी खूब धूम मचा रही है।

Sep 6, 2010

फिल्मी हीरो

अरसे बाद ऐसा हुआ है कि किसी फिल्म के प्रोमो ने मुझमें इतनी दिलचस्पी जगाई है कि मैं उसका पहले दिन का पहला शो देखने के लिए बेचैन हूं। मुझे नहीं पता कि फिल्म अच्छी होगी या बुरी। संभावना तो यही है कि फिल्म चलताऊ ही होगी। हाल ही में इस तरह की दो फिल्में आई थीं और वे दोनों भी ऐसी ही थीं। यह अलग बात है कि उन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर खूब धूम मचाई।

उनमें से एक आमिर खान की फिल्म थी, जिसके बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के बाद आमिर ने मार्केटिंग के महारथी का रुतबा हासिल कर लिया। इसकी एक वजह यह भी रही कि आमिर ने शाहरुख खान की सल्तनत में सेंध लगा दी थी। शाहरुख खान रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्म में अपने जाने-पहचाने रंग-ढंग के साथ मौजूद थे, लेकिन इस फिल्म के प्रदर्शन के महज दो हफ्तों बाद रिलीज हुई आमिर की फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया। देखते ही देखते सभी का ध्यान सुरिंदर साहनी से हटकर संजय सिंघानिया पर केंद्रित हो गया। मेरी नजर में दोनों ही फिल्में सामान्य थीं, लेकिन आमिर की फिल्म बहुत बड़ी हिट हो गई। साथ ही इसने बॉलीवुड को कामयाबी का एक नया मंत्र भी दे दिया : खूनखराबे से भरा ‘तमिल तड़का’।

इसकी सफलता के बाद इसी शैली की एक और फिल्म आई, लेकिन वह तमिल के बजाय तेलुगू मूल की थी : वांटेड। आप इससे बुरी किसी दूसरी फिल्म की कल्पना नहीं कर सकते। कमजोर कहानी, ढीली बुनावट, बिना किसी कुशलता के एक साथ नत्थी कर दिए गए अलग-अलग बिखरे हुए हिस्से। इसके बावजूद अगर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ दिए तो उसकी वजह थे सलमान खान। सलमान अपने चिर-परिचित अंदाज में परदे पर आए थे और उनका यही जादू काम कर गया। स्क्रीन पर सलमान का होना ही काफी होता है।

अगर आप मेरी तरह फिल्म को उसके प्रीमियर या टीवी पर नहीं देखते हैं। अगर आप फिल्म को मल्टीप्लेक्स के बजाय सिंगल स्क्रीन टॉकीज में देखते हैं, तो आप समझ सकते हैं कि सलमान का जादू क्यों चलता है। अकड़ से भरी उनकी चाल पर सीटियां बजती हैं। पुराने ढब के इन टॉकीजों में सलमान की हर अदा पर तालियां पड़ती हैं। उनके संवादों को दर्शक दोहराते हैं। कई ऐसे भी होते हैं, जो इससे पहले भी कई बार वह फिल्म देख चुके होते हैं। वे भी सलमान के साथ-साथ डायलॉग बोलकर सुनाते हैं।

सलमान अकेले ऐसे सितारे हैं, जिनके प्रशंसक उनसे अभिनय की उम्मीद नहीं करते। वे बस इतना ही चाहते हैं कि सलमान ठसक के साथ अकड़कर चलें, गाहे-बगाहे एकाध करारे डायलॉग छोड़ते रहें और जरूरत पड़ने पर अपने से भी कद्दावर गुंडों की ठुकाई कर दें। हां, वे एक क्षण के लिए अपनी तालियां सबसे ज्यादा सहेजकर रखते हैं, वह पल होता है जब सलमान अपनी शर्ट उतारते हैं। फिर चाहे सलमान को यह काम किसी की पिटाई करने के लिए करना पड़े या कोई चालू किस्म का गाना गाने के लिए।

आमिर इससे ठीक उलट हैं। वे कभी नहीं चाहते कि उनसे कोई गलती हो। उनके लिए हर रोल जिंदगी और मौत का सवाल होता है। उनकी फिल्में भी सलमान की फिल्मों के ठीक उलट होती हैं। वे इतनी एहतियात के साथ बनाई गई होती हैं कि प्रत्येक दृश्य से फिल्म की भावना और अहसास नजर आते हैं। फिल्म के दृश्यों में आमिर का व्यावहारिक कौशल नजर आ ही जाता है, लेकिन उन्हें इसलिए नजरअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि वे आमिर हैं और कुछ भी गलत नहीं कर सकते। अब तो आमिर के प्रोडच्यूसरों ने भी खुलकर शाहरुख खान के साथ नंबर गेम की जंग छेड़ दी है।

पूरे-पूरे पन्नों के विज्ञापन छपवाए जाते हैं, जिनमें आमिर की फिल्मों के बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के आंकड़े होते हैं। यह सिलसिला तब तक जारी रहता है, जब तक फिल्मी पंडित इस जोड़-गणित से तौबा नहीं कर लेते। अक्षय कुमार के निर्माताओं ने भी कुछ समय के लिए नंबर गेम की इस होड़ में शिरकत की, पर पिछली कुछ फिल्मों के पिटने के बाद वे अब खामोश हो गए हैं। लेकिन अक्षय का करिश्मा अब भी बरकरार है। अक्षय जानते हैं कि उनके पास हंसी-ठिठोली का ऐसा माद्दा है कि यदि पटकथा में थोड़ी-बहुत झोल भी हो तो वे उसे छुपा लेंगे। शायद इसी भरोसे से अक्षय आंख मूंदकर कोई भी फिल्म साइन कर लेते हैं।

यह बड़े मजे की बात है कि आज सलमान को छोड़ बाकी सारे फिल्मी अभिनेता ‘स्टार’ नहीं लगते। वे अब स्टार से ज्यादा बिजनेसमैन दिखने लगे हैं। शाहरुख तो एक बिजनेस पत्रिका के कवर पर भी अवतरित हो चुके हैं। अब वे स्टार के बजाय किसी प्रोडच्यूसर सरीखा व्यवहार करते ज्यादा नजर आते हैं। यही हाल आमिर का भी है। वे भूल रहे हैं कि इस तरह एक बड़ा प्रशंसक वर्ग तैयार नहीं किया जा सकता।

आम आदमी अमूमन रुपए-पैसों के गणित में उलझे रहने वाले शख्स को पसंद नहीं करता। लोग आम तौर पर बिजनेसमैन को पसंद नहीं करते। जब मैं छोटा था, तब अधिकतर फिल्मों में खलनायक गांव का महाजन या शहर का सफेदपोश साहूकार ही होता था। अब भारत की तस्वीर बदल गई है और लोगों के लिए पैसा कोई खराब चीज नहीं रह गई है, लेकिन हमारे देश का आम आदमी आज भी किसी अमीर आदमी के बजाय अपने हीरो को ही रुपहले परदे पर देखना पसंद करता है। पूरे दो दशक तक हमारे बॉलीवुड का हीरो एक ऐसा एंग्री यंग मैन रहा, जो सिस्टम से अकेले लड़ता था और अकेले ही गुनहगारों का पर्दाफाश भी कर देता था।

इसीलिए मैं एक बार फिर चुलबुल पांडे के बारे में सोच रहा हूं। मुझे कोई शक नहीं है कि दबंग किस तरह की फिल्म होगी। लेकिन मैं ऐसी फिल्मों को पसंद करता हूं, जिनमें कोई सिरफिरा किस्म का हीरो उतनी ही सिरफिरी किस्म की कहानी के साथ हमारे सामने आता है और परदे पर अजीबोगरीब हरकतें करते हुए दर्शकों का दिल जीत लेता है। आज सलमान से बेहतर इस काम को और कोई अंजाम नहीं दे सकता।

क्या मैं खुद कभी इस तरह की कोई फिल्म बनाऊंगा? शायद नहीं। क्या मैं आपको इस तरह की कोई फिल्म देखने का सुझाव दूंगा? कतई नहीं। लेकिन क्या मैं सीटियां बजाते, तालियां पीटते दीवाने प्रशंसकों के बीच किसी एकल ठाठिया टॉकीज में यह फिल्म देखने जाऊंगा? जी हां। फिल्म देखने के इस सबसे मजेदार अनुभव के लिए ही मैं पैसे खर्च करता हूं। यह मुझे अपने बचपन के दिनों की याद दिलाता है। यह मुझे उन फिल्मों की याद दिलाता है, जहां हमारी फिल्में निहायत ‘फिल्मी’ किस्म की हुआ करती थीं और हमारे फिल्मी हीरो कुछ भी कर सकते थे।

Sep 4, 2010

जानिए क्या होते हैं पिक्सल ?

आप जब भी किसी फोटो को देखते हैं तो लगता है कि वो पूरी तरह से एक ही एलीमेंटस से बनी हुई है लेकिन जनाब ऐसा नहीं है दरअसल जो भी पिक्चर या फोटो हम देखते है वो बहुत छोटे टुकड़ो या बिंदुओ से मिलकर बनी होती है जिसे पिक्सल कहा जाता है। कंप्यूटर से लेकर तमाम डिजिटल उपकरणों पर दिखने वाली तस्वीरें इन्ही पिक्सलों से मिलकर बनती हैं।


लेकिन अहम बात ये है कि पिक्सल किसी भी फोटो को मापने का पैमाना नहीं है। जैसा कि कई बार कैमरों पर पिक्सल्स इंच दिया जाता है। सीधे तौर पर इसे इस तरह समझा जा सकता है कि जिस फोटो में जितने ज्यादा पिक्सल होंगे वो फोटो उतनी ही ज्यादा स्पष्ट होगी। कंप्यूटर के मॉनीटर पर या टीवी स्क्रीन या कोई भी फोटो लाखों पिक्सल्स से मिलकर बनी होती है। हर एक पिक्सल आठ या उसके गुणक में रंग ग्रहण करता है। बिट को इसकी इकाई माना जाता है। अगर किसी पिक्सल में 24 बिट हैं तो वर अधिकतम 16 लाख रंगों को दिखा सकता है। माना जाता है कि पिक्सल ही किसी फोटो की सबसे छोटी इकाई होते हैं लेकिन ये पिक्सल भी कई छोटे तत्वों से मिलकर बने होते हैं। एक मॉनीटर का पिक्सल तीन रंगों के बिंदुओ से बने होते हैं ये रंग हैं ला, हरा और बैंगनी। ये तीनो रंग किसी पिक्सल में घुले मिले होते हैं। डिजिटल कैमरों के लिए मेगापिक्सल शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जो पिक्सल से भी छोटी इकाई है। मेगापिक्सल्स कैमरों को बेहतर माना जाता है।

Sep 3, 2010

जानिए क्या है ‘क्यूआईबी’

क्यूआईबी या क्वालिफाइड इंस्टीट्यूशन बायर्स यानि वो खरीदार जिन्हे सेबी ने रेकमेंड किया है और जिनके पास पहले से ही बड़ा फंड होता है। ये खरीदार बड़े पैमाने पर शेयर्स की खरीद करते हैं। इनमें शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंक, इरडा के पास रजिस्टर्ड इंश्योरेंस कंपनियां, म्यूचुअल फंड हाउस, एफआईआई आदि शामिल हैं। ये सब सेबी द्वारा लीगल रुप से रेकमेंड किए जाते हैं

जानिए रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट का अंतर

गलवार को रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए रेपो और रिवर्स रेपो दोनो ही दरों को बढ़ा दिया है । इस नीति के अंतर्गत केन्द्रीय बैंक आगे की रणनीतिके बारे में दिशा निर्देश तय करता है। जिसके तहत वह रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट कोघटाता या बढ़ाता है। लेकिन आरबीआई के इन तकनीकी शब्दों के बारे में आम आदमी काज्ञान शून्य रहता है। आइए जानते हैं। क्या होती है रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट औरक्यों जरुरत होती है इसे घटाने और बढ़ाने की।

रेपो रेट

आम आदमी कीतरह बैंकों और वित्तीय संस्थानों को भी कर्ज की जरुरत पड़ती है ऐसे में ये रिजर्वबैंक से शार्ट टर्म के लिए कर्ज लेते हैं। जिस ब्याज दर पर आरबीआई बैंकों औरवित्तीय संस्थानों को कर्ज देता है उसे रेपो रेट कहते है। जब बाजार में लिक्विडिटीज्यादा हो जाती है तो आरबीआई रेपो रेट बढ़ा देता है जिससे आरबीआई से मिलने वालाकर्ज महंगा हो जाता है और बाजार में लिक्विडिटी में कमी आ जाती है। इससे महंगाई कोकाबू में करने में भी मदद मिलती है।

रिवर्स रेपो रेट

बैंकों औरवित्तीय संस्थानों के पास जब नगदी की अधिकता हो जाती है तो वो उसे आरबीआई को उधारदे देते हैं। जिस दर पर आरबीआई उन्हें ब्याज देता है उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं।महंगाई को काबू में करने के लिए भी रिवर्स रेपो रेट आरबीआई बढ़ा देता है जिससे बैंकबाजार में पैसा लगाने के बजाय आरबीआई के पास पैसा जमा करवाने में ज्यादा दिलचस्पीदिखाते हैं।