Aug 24, 2010
हैंडराइटिंग से माइंड रीडिंग?
पैरंट्स जब अपने नन्हे-मुन्ने के हाथ में पेंसिल थमाते हैं तो उनका मकसद होता है कि वह पढ़-लिखकर लायक बन जाए। बच्चा भी आड़े-तिरछे अक्षर बनाते-बनाते
कब मोटी-मोटी कॉपियां काली करने लगता है, पता ही नहीं चलता। लेकिन कॉपियों पर उकेरे गए ये अक्षर सिर्फ ज्ञान की कहानी बयां नहीं करते, बल्कि ये बताते हैं लिखनेवाले की पर्सनैलिटी, उनकी मनोदशा, उसकी सोच... और भी बहुत कुछ। अक्षरों की इसी दिलचस्प कहानी को बयां कर रही हैं प्रियंका सिंह :
मुंबई पुलिस ने एक केस के सिलसिले में एक मुलजिम को गिरफ्तार किया। पूरी कोशिशों और थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने के बावजूद उसने मुंह नहीं खोला। इस केस से जुड़े पुलिस अधिकारी की मुलाकात एक हैंडराइटिंग एक्सपर्ट से हुई। उन्होंने मुलजिम के हस्ताक्षर देखकर बताया कि यह शख्स अपनी मां से बहुत जुड़ा होगा। पुलिस ने उसकी मां को उठा लिया। यह जानकर अपराधी ने फौरन अपना गुनाह कबूल कर लिया। है ना ताज्जुब की बात! जो काम थर्ड डिग्री न कर पाई, वह एक हस्ताक्षर ने कर दिखाया।
यह दावा है एक हैंडराइटिंग एक्सपर्ट का, जिनका मानना है कि हमारी लिखावट हमारे बारे में सब कुछ बयां कर देती है। दूसरी ओर, साइंटिफिक अप्रोच रखने वाले लोग इससे इत्तफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि हैंडराइटिंग किसी के बारे में थोड़ा-बहुत ही बता सकती है। बाकी सारा काम अनुमान के आधार पर होता है।
क्या हैं हम, बताती है लिखावट
हमारी लिखावट हमारी पर्सनैलिटी का आईना होती है। हम जब पेपर पर कुछ लिखते हैं तो वह सिर्फ अक्षर या वाक्य नहीं होता, बल्कि हम क्या हैं, कैसे हैं, यह उन शब्दों से पढ़ा और समझा जा सकता है। लिखावट लिखनेवाले के इमोशंस, सोच, सेहत, गुण, नजरिए आदि के बारे में काफी कुछ बता सकती है। इंस्टिट्यूट ऑफ ग्राफॉलजी के डायरेक्टर अनल पंडित का दावा है कि लिखावट हमारे दिमाग और हाथ के बीच बांध का काम करती है। थोड़ा फिलॉसफिकल तरीके से ऐसे भी समझ सकते हैं कि हमारी सोच शब्दों के रूप में सामने आती है और शब्द एक्शन के रूप में। हम चाहे इग्नोर कर दें, लेकिन द्ब पर बिंदी लगाते हैं या नहीं, ह्ल को कहां से क्रॉस करते हैं, हिंदी में लिखते हुए ऊपर की लाइन कितना ऊपर या नीचे खींचते हैं, ये छोटी-छोटी बातें बेहद अहम होती हैं।
हम सब हैं जुदा-जुदा
किन्हीं दो लोगों की लिखावट एक जैसी नहीं होती क्योंकि हर किसी के दिमाग का स्तर, सोचने का तरीका, खुद को एक्सप्रेस करने का तरीका आदि अलग होता है। गौर करने वाली बात है कि पढ़े-लिखे लोगों की लिखावट अनपढ़ों या कम पढ़े-लिखों से बिल्कुल अलग बल्कि बेहतर होती है। इसी से पता चलता है कि हैंडराइटिंग हमारी शख्सियत के बारे में काफी कुछ बता सकती है। एक्सर्पट्स तो इससे और आगे जाकर ग्राफोथेरपी की भी बात करते हैं। अनल पंडित कहते हैं कि ग्राफॉलजी(हैंडराइटिंग का अनालिसिस)से किसी शख्स के बारे में जानकारी मिल सकती है, जबकि ग्राफोथेरपी (हैंडराइटिंग में सुधार) से उसकी पर्सनैलिटी को बदला जा सकता है।
इतिहास गवाह है
हितोपदेश के अलावा और भी ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखावट की अहमियत और इसे एक तकनीक के रूप में स्वीकार किए जाने की बात कही गई है। शिवाजी महाराज के गुरु स्वामी रामदास ने 'दासबोध' में लिखा है कि लिखावट का हमारे व्यक्तित्व पर खासा असर होता है। उन्होंने एक चार्ट भी दिया, जिसमें अक्षरों को सही तरीके से बनाने की जानकारी दी गई थी। इससे भी बहुत पहले 1622 में एक इटैलियन स्कॉलर ने इस विषय पर किताब लिख दी थी। बाद में गोथे, डिकेंस, ब्राउनिंग्स जैसे लेखकों ने इसे एक आर्ट के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। 1857 में पहली बार जिन मिकन इन ग्राफॉलजी शब्द ईजाद किया। यूरोप में आज भी लिखावट को एक असेसमेंट टूल के रूप में बहुत अच्छी तरह स्वीकार किया जाता है। फ्रांस, इसाइल और जर्मनी जैसे देशों में तो कई बार कंपनियां उच्च पदों पर अपॉइंटमेंट से पहले कैंडिडेट का हैंडराइटिंग असेसमेंट भी कराती हैं। एक स्टडी में फ्रांस में 80 फीसदी और इंग्लैंड में करीब 8 फीसदी कंपनियां अपॉइंटमेंट में इस तकनीक का सहारा लेती पाई गईं। इस्राइल में हाल में एक रिसर्च में कहा गया लिखावट से पता चल सकता है कि लिखनेवाला झूठ बोल रहा है या नहीं। हमारे देश में इस तकनीक का सहारा ज्यादातर क्रिमिनल केस सुलझाने में किया जाता है।
मन बदला तो लिखावट बदली
मन की दशा के मुताबिक ही लिखावट तय होती है। अगर मन उदास है, मन में उत्साह है, कुलबुलाहट है या फिर जल्दी है, इन सभी स्थितियों में लिखावट में अंतर नजर आएगा। बावजूद इसके, अक्षर बनाने का तरीका, झुकाव, बनावट आदि कभी नहीं बदलते और पैरामीटर व बेस एक जैसे ही रहते हैं। इसी आधार पर असली और नकली लिखावट की भी जांच की जाती है। हैंडराइटिंग एंड फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट अशोक कश्यप के मुताबिक अगर कोई किसी की लिखावट या साइन की कॉपी करता है तो मोटे तौर पर उनमें समानता ही नजर आती है लेकिन बारीकी से जांच करने पर कॉपी वाली लिखावट में रुकावट होगी, लिखने की स्पीड नॉर्मल नहीं होगी, पेन के निशान नजर आएंगे और अक्षरों का गठन भी सामान्य नहीं होगा। वैसे, कई बार लोग अपने फेवरेट शख्स की लिखावट की कॉपी भी करते हैं। ऐसे में उनकी लिखावट में उनकी अपनी और जिसकी कॉपी कर रहे हैं, उसकी पर्सनैलिटी का मिक्सचर आ सकता है।
मुमकिन है बदलाव!
जानकारों के मुताबिक ग्राफोथेरपी से हम अपना माइंडसेट बदल सकते हैं और जिंदगी में बेहतर रिजल्ट पा सकते हैं। यही वजह है कि आजकल हैंडराइटिंग अनालिसिस एक कोर्स के रूप में काफी पॉपुलर हो रहा है। इसके लिए बाकायदा कोर्स और क्लास कराई जा रही हैं। आमतौर पर 14 साल से कम उम्र के बच्चों की हैंडराइटिंग में बदलाव ज्यादा असरदार साबित नहीं होता क्योंकि इस उम्र तक उन पर ज्यादा असर अपने पैरंट्स और टीचर्स का होता है। इसके बाद जरूर आप पर्सनैलिटी में बदलाव कर सकते हैं। जानकारों का कहना है कि लिखावट का सही ज्ञान आपके अंदर की क्षमता को नहीं बदल सकता लेकिन आपको उसके टॉप लेवल तक जरूर पहुंचा सकता है। वैसे, हर शख्स को लिखावट में एक ही तरह के चेंज की सलाह नहीं दी जा सकती। हैंडराइटिंग एक्सपर्ट एस. पी. सिंह के मुताबिक लिखावट में बदलाव हर आदमी के लिए अलग होते हैं और ये सिर्फ सांकेतिक होते हैं। किसी की हैंडराइटिंग में बदलाव के लिए सही सलाह कोई अच्छा एक्सपर्ट ही दे सकता है।
एक नजरिया यह भी
साइंटिफिक अप्रोच वाले लोग ग्राफॉलजी को सूडो-साइंस मानते हुए इसे एस्ट्रॉलजी, पामिस्ट्री, न्यूमेरॉलजी की तरह ही मानते हैं। साइंस इस बात से भी इनकार करता है कि अवचेतन अवस्था में लोग सच ही बोलते या लिखते हैं, जबकि हैंडराइटंग में अवचेतन मन काफी अहम होता है। ब्रिटेन के मशहूर सायकॉलजिस्ट और लेखक एड्रियन फर्नहम के मुताबिक अगर लिखनेवाला खुद के विचार लिखने के बजाय कहीं से टेक्स्ट कॉपी करता है तो उस स्थिति में भी उसकी हैंडराइटिंग का सही अनालिसिस नहीं हो सकता। यही बात इस विधा के खिलाफ जाती है, यानी लिखनेवाला अपने मन की बात लिखता है तो उसमें उसके विचारों की झलक मिल ही जाती है। बकौल फर्नहम, नॉन एक्सपर्ट भी 70 फीसदी मामलों में जान लेते हैं कि लिखनेवाला पुरुष है या महिला। इससे तो यही लगता है कि ग्राफॉलजी में अनुमान के आधार पर ज्यादा काम होता है। उनका यह भी कहना है कि जो लोग साइंटिफिक सोच से दूर रहते हैं, लॉजिक और रीजन की बात नहीं करते, वही इसे मानते हैं। साइंस की बता करें तो भी हैंडराइटिंग पैटर्न और पर्सनैलिटी बिहेवियर के बीच कनेक्शन के कोई साइंटिफिक सबूत नहीं मिलते हैं। अभी तक की गईं रिसर्च या इसके खिलाफ रही हैं या फिर कोई फैसला नहीं कर पाई हैं। हालांकि कुछ लोग इसमें आगे रिसर्च की गुंजाइश मानते हैं।
मिलते हैं कुछ संकेत
अगर लिखते हुए आपके अक्षरों का झुकाव आगे यानी राइट को होता है, तो आप काफी इमोशनल शख्स हो सकते हैं। सीधा लिखते हैं तो इमोशंस के मामले में आपकी बैलेंस्ड अप्रोच होगी और अगर लेफ्ट की ओर झुकाव होता है तो हो सकता है कि इमोशंस आपके लिए खास मायने नहीं रखते हों।
लिखते हुए लाइन ऊपर को जाती है तो आप पॉजिटिव सोच और हाई एनर्जी वाले होंगे। लाइन का नीचे को जाना थकान, निगेटिव सोच और लो एनर्जी को दर्शाता है।
लिखावट में अगर सर्कुलर मूवमेंट ज्यादा हैं तो आप हंसमुख और आसानी से दूसरों की बातें मानने वाले होंगे। स्क्वेयर हैंडराइटिंग प्रैक्टिकल अप्रोच को बताती है। लिखावट में तीखापन आए तो आपमें हाई एनर्जी के साथ-साथ स्पष्टवादिता और आक्रमकता भी होगी। स्ट्रोक्स रेग्युलर न हों तो आपका मिजाज कलाकार वाला और कोई खास स्टैंड न लेने वाला हो।
अगर लिखते हुए आप पेपर पर प्रेशर ज्यादा डालते हैं तो यह भावनाओं की गहनता को बताता है। इससे आपके महत्वाकांक्षी होने का भी पता लगता है क्योंकि दबाव स्ट्रेस लेवल को जाहिर करता है। महत्वाकांक्षी लोगों में स्ट्रेस ज्यादा होता है।
सुंदर और बोल्ड लिखावट हो तो आप महत्वाकांक्षी हो सकते हैं।
फिजूलखर्च करनेवाले बड़ा-बड़ा लिखते हैं तो कंजूस इतना छोटा लिखते हैं कि स्पेस और पेपर भी खराब न हो।
शब्दों को खींचकर लिखते हैं तो आपके स्वभाव में आलस हो सकता है।
ह्ल में ऊपर की तरफ बार लगाते हैं तो आपके मकसद इतने ऊंचे होंगे कि उन्हें पाना मुश्किल होगा और बहुत नीचे लगाते हैं तो आप अपनी काबिलियत से कम गोल तय करके चलते हैं। अगर बार का साइज ठीक होता है तो यह अच्छी विल पावर को दिखाता है, जिससे चीजें आसानी से मिल जाती है और इससे आलस पैदा होता है।
द्ब पर या हिंदी में किसी भी अक्षर पर गोल और बड़ा बिंदु लगाते हैं तो आपका पार्टनर सुंदर होने की संभावना होती है और आपको घर भी बहुत करीने से सजाकर रखना पसंद होगा।
सिग्नेचर
अगर साइन स्पष्ट नहीं हैं तो हो सकता है कि लिखनेवाला कुछ कंफ्यूज्ड हो या फिर कुछ छुपाना चाहता हो। कई बार ये वजहें नहीं होतीं, बल्कि कोई अपने पसंदीदा शख्स के साइन को कॉपी करने की वजह से भी ऐसे साइन करने लगता है।
आमतौर पर लोग साइन के नीचे दो डॉट लगाते हैं (..), अगर डॉट साइन के शुरू में लगाते हैं तो ऐसे लोगों की लाइफ अपने पार्टनर और बच्चों के आसपास ही सिमटी होती है। अगर डॉट बीच में लगाते हैं तो ये लोग ग्रुप में रहना पसंद करते हैं। आखिर में डॉट लगानेवाले लोगों के लिए फ्रेंड्स ही सब कुछ होते हैं। परिवार से इन्हें खास सरोकार नहीं होता।
साइन के नीचे लाइन खींचना आपके अधिकार वाले रवैये को बताता है। ऐसे लोग खुद को सही साबित करना चाहते हैं और किसी का विरोध उन्हें बर्दाश्त नहीं होता।
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भारतीय उद्योग जगत का रतन
टाटा ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज के नए उत्तराधिकारी की तलाश का काम जारी है। लेकिन पांचवें चेयरमैन के रूप में रतन नवल टाटा
ने इसे जिस ऊंचाइयों तक पहुंचाया है, वह बेमिसाल है। 1991 में ग्रुप की कमान संभालने के बाद से रतन टाटा ने लगातार साबित किया कि अगर आप में प्रतिभा है, तो आप देश में रहकर भी ऐसे शिखर पर पहुंच सकते हैं, जहां हर भारतीय आप पर नाज करे।
नहीं मिला पैरंट्स का साथ
रतन टाटा का जन्म 28 दिसंबर 1937 को मुंबई में हुआ। उनके दादा जमशेदजी टाटा थे। रतन को अपने पैरंट्स का प्यार नहीं मिल पाया। उनके माता-पिता बचपन में ही अलग हो गए थे। उस समय उनकी उम्र सात साल और उनके भाई जिम्मी की उम्र पांच साल थी। दादी मां ने ही दोनों भाइयों का पालन-पोषण किया।
प्यार भी छोड़ना पड़ा
वह पारसी समुदाय के हैं, जहां बच्चों की पढ़ाई पर खासा ध्यान दिया जाता है। यही वजह थी कि स्कूल के दिनों में उन्हें जबरदस्ती स्कूल और ट्यूशन भेजा जाता था। बाद में उन्होंने लंदन से आर्किटेक्चर एंड स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और फिर हॉर्वड यूनिवर्सिटी से एडवांस मैनेजमेंट प्रोग्राम कोर्स किया। वैसे, कैलिफॉर्निया से भी उन्हें बहुत लगाव है क्योंकि वहां का कैजुअल लाइफस्टाइल तो उन्हें पसंद था ही, उनका प्यार भी उन्हें पढ़ाई के दौरान वहीं मिला। हालांकि किसी वजह से उन्हें भारत आना पड़ा और उनका प्यार वहीं छूट गया।
कारोबार में मचा दी धूम
25 साल की उम्र में वह अपने पुश्तैनी कारोबार से जुड़ गए। शुरुआती दिनों में नेल्को और सेंट्रल इंडिया टेक्सटाइल जैसी घाटे की कंपनियों को संभाला और उन्हें कमाऊ बनाकर अपनी विलक्षण प्रतिभा का सबूत किया। इसके बाद उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। टाटा गुप के पास अब 98 ऑपरेटिंग कंपनियां हैं, जिनका सालाना रेवेन्यू 71 बिलियन डॉलर है। इस ग्रुप में तकरीबन 3.57 लाख कर्मचारी काम करते हैं। टाटा इंडिया के रूप में पहली ऐसी कार, जिसके डिजाइन से लेकर निर्माण तक का काम भारत में ही हुआ, का श्रेय भी रतन टाटा को ही जाता है। लखटकिया कार नैनो लाकर आम आदमी का कार का सपना भी उन्होंने ही साकार किया। बहुआयामी व्यक्त्वि के मालिक रतन टाटा को देश के साथ-साथ विदेश में भी सशक्त उद्योगपति माना जाता है। यही वजह है कि मित्सुबिशी कॉरपोरेशन, अमेरिकन इंटरनैशनल ग्रुप, इंटरनैशनल इनवेस्टमेंट काउंसिल, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज जैसे संगठनों ने भी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हुए उनकी सेवाएं लीं। 2000 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनकी उपलब्धियों में एक गौरवशाली आयाम उस वक्त जुड़ा, जब पूर्वी चीन के शहर हांगझाऊ ने उन्हें अपना आथिर्क सलाहकार मनोनीत किया ।
टैंगो और टीटो हैं चहेते
रतन टाटा के पास फरारी जैसी बेशकीमती गाडि़यां हैं, लेकिन उन्हें अपनी पुराने मॉडल की मर्सडीज को खुद ही ड्राइव करना पसंद है। इसके अलावा, उनके पास पसंदीदा प्राइवेट जेट फेलकॉन भी है, जिसे वे खुद ही ऑपरेट करते हैं। रतन टाटा को कुत्ते पालने का भी शौक है। उनके पास टैंगों और टीटो नाम के दो डॉग हैं।
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तिरंगा फहराने के कायदे-कानून
लासपुर हाई कोर्ट ने पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि रात को तिरंगा नहीं उतारे जाने को प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर
ऐक्ट-1971 का उल्लंघन नहीं माना जा सकता यानी अगर कोई रात को तिरंगा उतारकर नहीं रखता है तो वह कोई नियम नहीं तोड़ रहा है। तिरंगा फहराने को लेकर और भी कई नियम-कायदे हैं। पूरी जानकारी दे रहे हैं राजेश चौधरी :
रखरखाव के नियम
- आजादी से ठीक पहले 22 जुलाई, 1947 को तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया। तिरंगे के निर्माण, उसके साइज और रंग आदि तय हैं।
- फ्लैग कोड ऑफ इंडिया के तहत झंडे को कभी भी जमीन पर नहीं रखा जाएगा।
- उसे कभी पानी में नहीं डुबोया जाएगा और किसी भी तरह नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। यह नियम भारतीय संविधान के लिए भी लागू होता है।
- कानूनी जानकार डी. बी. गोस्वामी ने बताया कि प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 की धारा-2 के मुताबिक, फ्लैग और संविधान की इन्सल्ट करनेवालों के खिलाफ सख्त कानून हैं।
- अगर कोई शख्स झंडे को किसी के आगे झुका देता हो, उसे कपड़ा बना देता हो, मूर्ति में लपेट देता हो या फिर किसी मृत व्यक्ति (शहीद हुए आर्म्ड फोर्सेज के जवानों के अलावा) के शव पर डालता हो, तो इसे तिरंगे की इन्सल्ट माना जाएगा।
- तिरंगे की यूनिफॉर्म बनाकर पहन लेना भी गलत है।
- अगर कोई शख्स कमर के नीचे तिरंगा बनाकर कोई कपड़ा पहनता हो तो यह भी तिरंगे का अपमान है।
- तिरंगे को अंडरगार्मेंट्स, रुमाल या कुशन आदि बनाकर भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
फहराने के नियम
- सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच ही तिरंगा फहराया जा सकता है।
- फ्लैग कोड में आम नागरिकों को सिर्फ स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने की छूट थी लेकिन 26 जनवरी 2002 को सरकार ने इंडियन फ्लैग कोड में संशोधन किया और कहा कि कोई भी नागरिक किसी भी दिन झंडा फहरा सकता है, लेकिन वह फ्लैग कोड का पालन करेगा।
- 2001 में इंडस्ट्रियलिस्ट नवीन जिंदल ने कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि नागरिकों को आम दिनों में भी झंडा फहराने का अधिकार मिलना चाहिए। कोर्ट ने नवीन के पक्ष में ऑर्डर दिया और सरकार से कहा कि वह इस मामले को देखे। केंद्र सरकार ने 26 जनवरी 2002 को झंडा फहराने के नियमों में बदलाव किया और इस तरह हर नागरिक को किसी भी दिन झंडा फहराने की इजाजत मिल गई।
राष्ट्रगान के भी हैं नियम
- राष्ट्रगान को तोड़-मरोड़कर नहीं गाया जा सकता।
- अगर कोई शख्स राष्ट्रगान गाने से रोके या किसी ग्रुप को राष्ट्रगान गाने के दौरान डिस्टर्ब करे तो उसके खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 की धारा-3 के तहत कार्रवाई की जा सकती है।
- ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर अधिकतम तीन साल की कैद का प्रावधान है।
- प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 का दोबारा उल्लंघन करने का अगर कोई दोषी पाया जाए तो उसे कम-से-कम एक साल कैद की सजा का प्रावधान है।
ऐक्ट-1971 का उल्लंघन नहीं माना जा सकता यानी अगर कोई रात को तिरंगा उतारकर नहीं रखता है तो वह कोई नियम नहीं तोड़ रहा है। तिरंगा फहराने को लेकर और भी कई नियम-कायदे हैं। पूरी जानकारी दे रहे हैं राजेश चौधरी :
रखरखाव के नियम
- आजादी से ठीक पहले 22 जुलाई, 1947 को तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया। तिरंगे के निर्माण, उसके साइज और रंग आदि तय हैं।
- फ्लैग कोड ऑफ इंडिया के तहत झंडे को कभी भी जमीन पर नहीं रखा जाएगा।
- उसे कभी पानी में नहीं डुबोया जाएगा और किसी भी तरह नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। यह नियम भारतीय संविधान के लिए भी लागू होता है।
- कानूनी जानकार डी. बी. गोस्वामी ने बताया कि प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 की धारा-2 के मुताबिक, फ्लैग और संविधान की इन्सल्ट करनेवालों के खिलाफ सख्त कानून हैं।
- अगर कोई शख्स झंडे को किसी के आगे झुका देता हो, उसे कपड़ा बना देता हो, मूर्ति में लपेट देता हो या फिर किसी मृत व्यक्ति (शहीद हुए आर्म्ड फोर्सेज के जवानों के अलावा) के शव पर डालता हो, तो इसे तिरंगे की इन्सल्ट माना जाएगा।
- तिरंगे की यूनिफॉर्म बनाकर पहन लेना भी गलत है।
- अगर कोई शख्स कमर के नीचे तिरंगा बनाकर कोई कपड़ा पहनता हो तो यह भी तिरंगे का अपमान है।
- तिरंगे को अंडरगार्मेंट्स, रुमाल या कुशन आदि बनाकर भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
फहराने के नियम
- सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच ही तिरंगा फहराया जा सकता है।
- फ्लैग कोड में आम नागरिकों को सिर्फ स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने की छूट थी लेकिन 26 जनवरी 2002 को सरकार ने इंडियन फ्लैग कोड में संशोधन किया और कहा कि कोई भी नागरिक किसी भी दिन झंडा फहरा सकता है, लेकिन वह फ्लैग कोड का पालन करेगा।
- 2001 में इंडस्ट्रियलिस्ट नवीन जिंदल ने कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि नागरिकों को आम दिनों में भी झंडा फहराने का अधिकार मिलना चाहिए। कोर्ट ने नवीन के पक्ष में ऑर्डर दिया और सरकार से कहा कि वह इस मामले को देखे। केंद्र सरकार ने 26 जनवरी 2002 को झंडा फहराने के नियमों में बदलाव किया और इस तरह हर नागरिक को किसी भी दिन झंडा फहराने की इजाजत मिल गई।
राष्ट्रगान के भी हैं नियम
- राष्ट्रगान को तोड़-मरोड़कर नहीं गाया जा सकता।
- अगर कोई शख्स राष्ट्रगान गाने से रोके या किसी ग्रुप को राष्ट्रगान गाने के दौरान डिस्टर्ब करे तो उसके खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 की धारा-3 के तहत कार्रवाई की जा सकती है।
- ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर अधिकतम तीन साल की कैद का प्रावधान है।
- प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टु नैशनल ऑनर ऐक्ट-1971 का दोबारा उल्लंघन करने का अगर कोई दोषी पाया जाए तो उसे कम-से-कम एक साल कैद की सजा का प्रावधान है।
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अनचाही कॉल्स का जाल
ली मार्केटिंग कर रहे किसी बैंक कर्मचारी ने एफएम से फोन पर यह पूछ दिया कि क्या उन्हें लोन चाहिए? इससे वह झल्ला उठे। प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ मंत्
री का नाराज होना महत्वपूर्ण है, इसलिए वह चर्चा का मुद्दा बना और टेलिकॉम मंत्री डी. राजा को तुरंत हरकत में आना पड़ा। अपने देश की डेमोक्रेसी की यही विडंबना है। अंदाजा लगाइए कि ऐसी अनचाही कॉल्स से रोजाना कितने करोड़ उपभोक्ता परेशान होते हैं। जंक मेल और एसएमएस की सफाई पर रोजाना कितना समय बर्बाद होता है। लेकिन सरकार के लिए वह इतना महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रहा कि आनन-फानन में संचार मंत्री टेलिकॉम सेक्रेटरी को तुरंत कदम उठाने का निर्देश जारी करें।
मंत्रालय हरकत में तब आया जब एक वरिष्ठ मंत्री को असुविधा हुई। यह उलटा लोकतंत्र है जिसमें सरकार आम नागरिकों के परेशान होने पर समस्या का हल नहीं ढूंढती, बल्कि किसी मंत्री के परेशान होने पर जनता की परेशानी का अंदाजा लगाती है।
इसका दूसरा पहलू भी गौर करने लायक है। सरकार ने अनचाही कॉल्स रोकने के लिए 'डू नॉट कॉल रजिस्ट्री' का नियम बना रखा है। ट्राई को इससे जुड़े 6.58 करोड़ ग्राहकों से इस साल मार्च तक 3.4 लाख शिकायतें मिल चुकी हैं।
ज्यादातर तो अनसुनी रहीं, लेकिन जिन शिकायतों पर कार्रवाई की गई उनका भी कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि नियम तोड़ने पर कुल पांच सौ और हजार रुपये का जुर्माना होता है। ऐसे पनिशमेंट से क्या फायदा, जिससे किसी को डर ही न लगे। यह कुशासन है, जिसमें नियम-कानून तो बनाए जाते हैं, लेकिन यह निगरानी नहीं की जाती कि उनका पालन हो रहा है या नहीं। और नियम तोड़ने वालों को सजा भी नहीं मिलती।
बहरहाल इस घटना के बाद ट्राई 'डू कॉल रजिस्ट्री' की व्यवस्था पर विचार कर रही है। इस सिस्टम में टेली मार्केटिंग करने वाली कंपनियां सिर्फ उन्हीं कस्टमर्स को कॉल कर सकेंगी या मेल भेजेंगी, जिन्होंने अपना नंबर इसके लिए रजिस्टर करा रखा होगा कि हां, हमें कॉल करें और जानकारी दें। यह सिस्टम भी अच्छा है, लेकिन सवाल वही पुराना है कि इस पर अमल कितना होता है और निगरानी कैसी रहती है। लेकिन एफएम को गुस्सा क्यों आया? लगभग 75 अरब डॉलर का अपना बजट डेफिसिट पूरा करने के लिए उन्हें आखिर लोन तो चाहिए ही।
री का नाराज होना महत्वपूर्ण है, इसलिए वह चर्चा का मुद्दा बना और टेलिकॉम मंत्री डी. राजा को तुरंत हरकत में आना पड़ा। अपने देश की डेमोक्रेसी की यही विडंबना है। अंदाजा लगाइए कि ऐसी अनचाही कॉल्स से रोजाना कितने करोड़ उपभोक्ता परेशान होते हैं। जंक मेल और एसएमएस की सफाई पर रोजाना कितना समय बर्बाद होता है। लेकिन सरकार के लिए वह इतना महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रहा कि आनन-फानन में संचार मंत्री टेलिकॉम सेक्रेटरी को तुरंत कदम उठाने का निर्देश जारी करें।
मंत्रालय हरकत में तब आया जब एक वरिष्ठ मंत्री को असुविधा हुई। यह उलटा लोकतंत्र है जिसमें सरकार आम नागरिकों के परेशान होने पर समस्या का हल नहीं ढूंढती, बल्कि किसी मंत्री के परेशान होने पर जनता की परेशानी का अंदाजा लगाती है।
इसका दूसरा पहलू भी गौर करने लायक है। सरकार ने अनचाही कॉल्स रोकने के लिए 'डू नॉट कॉल रजिस्ट्री' का नियम बना रखा है। ट्राई को इससे जुड़े 6.58 करोड़ ग्राहकों से इस साल मार्च तक 3.4 लाख शिकायतें मिल चुकी हैं।
ज्यादातर तो अनसुनी रहीं, लेकिन जिन शिकायतों पर कार्रवाई की गई उनका भी कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि नियम तोड़ने पर कुल पांच सौ और हजार रुपये का जुर्माना होता है। ऐसे पनिशमेंट से क्या फायदा, जिससे किसी को डर ही न लगे। यह कुशासन है, जिसमें नियम-कानून तो बनाए जाते हैं, लेकिन यह निगरानी नहीं की जाती कि उनका पालन हो रहा है या नहीं। और नियम तोड़ने वालों को सजा भी नहीं मिलती।
बहरहाल इस घटना के बाद ट्राई 'डू कॉल रजिस्ट्री' की व्यवस्था पर विचार कर रही है। इस सिस्टम में टेली मार्केटिंग करने वाली कंपनियां सिर्फ उन्हीं कस्टमर्स को कॉल कर सकेंगी या मेल भेजेंगी, जिन्होंने अपना नंबर इसके लिए रजिस्टर करा रखा होगा कि हां, हमें कॉल करें और जानकारी दें। यह सिस्टम भी अच्छा है, लेकिन सवाल वही पुराना है कि इस पर अमल कितना होता है और निगरानी कैसी रहती है। लेकिन एफएम को गुस्सा क्यों आया? लगभग 75 अरब डॉलर का अपना बजट डेफिसिट पूरा करने के लिए उन्हें आखिर लोन तो चाहिए ही।
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पूंजी बाजार में माइक्रोफाइनेंस
छले दिनों एक माइक्रोफाइनेंस कंपनी अपने आईपीओ को लेकर चर्चा में रही। माइक्रोफाइनेंस यानी क्या? ठेले पर सब्जी बेचने, पापड़-बड़ियां बन
ाने या सड़क किनारे पंक्चर जोड़ने जैसे छोटे-मोटे कारोबार करने वालों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि उनके पास बंधक रखने को कुछ होता नहीं और बैंक इसके बगैर उन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं होते। सामान्य स्थितियों में तो उनका धंधा चलता रहता है, लेकिन किसी हारी-बीमारी में, किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाने पर, घर बनाने या शादी-ब्याह जैसे बड़े खर्चों का बोझ उठाने के लिए वे साहूकार से बहुत ऊंची दर पर कर्ज लेते हैं और अक्सर ब्याज चुकाने में ही उम्र गंवा देते हैं।
माइक्रोफाइनेंस ऐसे ही लोगों को कर्ज देने का एक उपाय है। इस धंधे के साथ कुछ मुश्किलें जुड़ी होती हैं। कर्ज बांटने और वसूली करने के लिए बड़ा स्टाफ रखना होता है।
बांटा गया कर्ज बट्टेखाते में चले जाने की आशंका ज्यादा होती है। इन मुश्किलों के चलते जल्दी कोई इसमें अपनी पूंजी लगाने की हिम्मत भी नहीं करता। बहरहाल, देश में पहली बार आए इस माइक्रोफाइनेंस कंपनी के आईपीओ की दो अलग-अलग नजरियों से आलोचना की गई। एक नजरिया नैतिकतावादियों का था, जिनके मुताबिक माइक्रोफाइनेंस छोटी आमदनी में गुजारा करने वालों को मदद पहुंचाने का जरिया है और इससे जुड़ी किसी कंपनी का पूंजी बाजार में उतरना देश को आधिकारिक रूप से साहूकार युग में ले जाने जैसा है।
दूसरा नजरिया खुद पूंजी बाजार के महारथियों का था। इनमें से कई यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि कोई माइक्रोफाइनेंस कंपनी अपने आम शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह हो सकती है। इन दोनों नजरियों में कौन सही है कौन गलत, या फिर ये कहीं दोनों ही पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं हैं, इस बारे में अंतिम राय देने का समय अभी नहीं आया है। अलबत्ता एक बात तय है कि भारत में माइक्रोफाइनेंस के लिए जमीन बड़ी उपजाऊ है। यहां गुजारे के स्तर के कारोबारी कुछ बंधक रखे बगैर छोटे-मोटे कर्ज हासिल करने के लिए ऊंचा ब्याज चुकाने को भी तैयार रहते हैं। इस हकीकत को समझकर कुछ माइक्रोफाइनेंस कंपनियों ने इधर अपने लिए अच्छा कारोबार खड़ा किया है, हालांकि उनका असली इम्तहान सूखे, बाढ़ और भूकंप जैसी आपदाओं के दौर में होना है, जब उनमें पूंजी लगाने वाले मुनाफा चले जाने के डर से अपनी पूंजी खींचने लगते हैं और कर्ज लेने वाले उसे लौटाने की हालत में नहीं होते।
ाने या सड़क किनारे पंक्चर जोड़ने जैसे छोटे-मोटे कारोबार करने वालों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि उनके पास बंधक रखने को कुछ होता नहीं और बैंक इसके बगैर उन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं होते। सामान्य स्थितियों में तो उनका धंधा चलता रहता है, लेकिन किसी हारी-बीमारी में, किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाने पर, घर बनाने या शादी-ब्याह जैसे बड़े खर्चों का बोझ उठाने के लिए वे साहूकार से बहुत ऊंची दर पर कर्ज लेते हैं और अक्सर ब्याज चुकाने में ही उम्र गंवा देते हैं।
माइक्रोफाइनेंस ऐसे ही लोगों को कर्ज देने का एक उपाय है। इस धंधे के साथ कुछ मुश्किलें जुड़ी होती हैं। कर्ज बांटने और वसूली करने के लिए बड़ा स्टाफ रखना होता है।
बांटा गया कर्ज बट्टेखाते में चले जाने की आशंका ज्यादा होती है। इन मुश्किलों के चलते जल्दी कोई इसमें अपनी पूंजी लगाने की हिम्मत भी नहीं करता। बहरहाल, देश में पहली बार आए इस माइक्रोफाइनेंस कंपनी के आईपीओ की दो अलग-अलग नजरियों से आलोचना की गई। एक नजरिया नैतिकतावादियों का था, जिनके मुताबिक माइक्रोफाइनेंस छोटी आमदनी में गुजारा करने वालों को मदद पहुंचाने का जरिया है और इससे जुड़ी किसी कंपनी का पूंजी बाजार में उतरना देश को आधिकारिक रूप से साहूकार युग में ले जाने जैसा है।
दूसरा नजरिया खुद पूंजी बाजार के महारथियों का था। इनमें से कई यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि कोई माइक्रोफाइनेंस कंपनी अपने आम शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह हो सकती है। इन दोनों नजरियों में कौन सही है कौन गलत, या फिर ये कहीं दोनों ही पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं हैं, इस बारे में अंतिम राय देने का समय अभी नहीं आया है। अलबत्ता एक बात तय है कि भारत में माइक्रोफाइनेंस के लिए जमीन बड़ी उपजाऊ है। यहां गुजारे के स्तर के कारोबारी कुछ बंधक रखे बगैर छोटे-मोटे कर्ज हासिल करने के लिए ऊंचा ब्याज चुकाने को भी तैयार रहते हैं। इस हकीकत को समझकर कुछ माइक्रोफाइनेंस कंपनियों ने इधर अपने लिए अच्छा कारोबार खड़ा किया है, हालांकि उनका असली इम्तहान सूखे, बाढ़ और भूकंप जैसी आपदाओं के दौर में होना है, जब उनमें पूंजी लगाने वाले मुनाफा चले जाने के डर से अपनी पूंजी खींचने लगते हैं और कर्ज लेने वाले उसे लौटाने की हालत में नहीं होते।
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