छले दिनों एक माइक्रोफाइनेंस कंपनी अपने आईपीओ को लेकर चर्चा में रही। माइक्रोफाइनेंस यानी क्या? ठेले पर सब्जी बेचने, पापड़-बड़ियां बन
ाने या सड़क किनारे पंक्चर जोड़ने जैसे छोटे-मोटे कारोबार करने वालों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि उनके पास बंधक रखने को कुछ होता नहीं और बैंक इसके बगैर उन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं होते। सामान्य स्थितियों में तो उनका धंधा चलता रहता है, लेकिन किसी हारी-बीमारी में, किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाने पर, घर बनाने या शादी-ब्याह जैसे बड़े खर्चों का बोझ उठाने के लिए वे साहूकार से बहुत ऊंची दर पर कर्ज लेते हैं और अक्सर ब्याज चुकाने में ही उम्र गंवा देते हैं।
माइक्रोफाइनेंस ऐसे ही लोगों को कर्ज देने का एक उपाय है। इस धंधे के साथ कुछ मुश्किलें जुड़ी होती हैं। कर्ज बांटने और वसूली करने के लिए बड़ा स्टाफ रखना होता है।
बांटा गया कर्ज बट्टेखाते में चले जाने की आशंका ज्यादा होती है। इन मुश्किलों के चलते जल्दी कोई इसमें अपनी पूंजी लगाने की हिम्मत भी नहीं करता। बहरहाल, देश में पहली बार आए इस माइक्रोफाइनेंस कंपनी के आईपीओ की दो अलग-अलग नजरियों से आलोचना की गई। एक नजरिया नैतिकतावादियों का था, जिनके मुताबिक माइक्रोफाइनेंस छोटी आमदनी में गुजारा करने वालों को मदद पहुंचाने का जरिया है और इससे जुड़ी किसी कंपनी का पूंजी बाजार में उतरना देश को आधिकारिक रूप से साहूकार युग में ले जाने जैसा है।
दूसरा नजरिया खुद पूंजी बाजार के महारथियों का था। इनमें से कई यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि कोई माइक्रोफाइनेंस कंपनी अपने आम शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह हो सकती है। इन दोनों नजरियों में कौन सही है कौन गलत, या फिर ये कहीं दोनों ही पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं हैं, इस बारे में अंतिम राय देने का समय अभी नहीं आया है। अलबत्ता एक बात तय है कि भारत में माइक्रोफाइनेंस के लिए जमीन बड़ी उपजाऊ है। यहां गुजारे के स्तर के कारोबारी कुछ बंधक रखे बगैर छोटे-मोटे कर्ज हासिल करने के लिए ऊंचा ब्याज चुकाने को भी तैयार रहते हैं। इस हकीकत को समझकर कुछ माइक्रोफाइनेंस कंपनियों ने इधर अपने लिए अच्छा कारोबार खड़ा किया है, हालांकि उनका असली इम्तहान सूखे, बाढ़ और भूकंप जैसी आपदाओं के दौर में होना है, जब उनमें पूंजी लगाने वाले मुनाफा चले जाने के डर से अपनी पूंजी खींचने लगते हैं और कर्ज लेने वाले उसे लौटाने की हालत में नहीं होते।
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