फारुख अब्दुल्ला की तत्काल टिप्पणी- कि उनका बेटा जूते-वाले ‘इलीट समूह’ का हिस्सा बन गया- प्रकारांतर से जॉर्ज बुश की इराक में सामरिक नीतियों को सही ठहराती है और यह बताने का प्रयत्न करती है कि कश्मीर में सब ठीक-ठाक है।
हाल के वर्षो में जूता फेंकना राजकीय दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ प्रतिरोध के नए प्रतीक के रूप में विकसित हुआ है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर 15 अगस्त के दिन एक निलंबित पुलिसवाले ने जूता फेंका। हर बार ऐसी घटना के बाद राज्य की तरफ से यह कोशिश की जाती है कि इसे लोकप्रिय जनभावना के तहत देखे जाने से टाला जाए।
इसके लिए कुछ आसान तर्क भी जुटा लिए जाते हैं, कि विरोध का यह तरीका ‘छिछला’ है और सभ्य समाज में ऐसी हरकत व्यापक आबादी का सच नहीं हो सकती। या फिर ऐसी ‘अलोकतांत्रिक और अमर्यादित हरकत’ कुछ सनकी दिमागों द्वारा सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए की गई कवायद है।
लेकिन उमर अब्दुल्ला प्रकरण में फारुख अब्दुल्ला की तत्काल टिप्पणी- कि उनका बेटा जूते-वाले ‘इलीट समूह’ का हिस्सा बन गया- का संदेश शायद यही है कि महान लोगों के विरोधी हर समाज में पैदा होते हैं और अगर महानता को हासिल करना है, तो यह इस बात पर निर्भर करता है कि विरोधी अनिवार्य तौर पर समाज के भीतर मौजूद हो।
इस तरह प्रकारांतर से वे जॉर्ज बुश की इराक में सामरिक नीतियों को भी सही ठहरा गए और यह बताने का भरसक प्रयत्न भी कर गए कि कश्मीर में सब ठीक-ठाक है। याद रहे कि जॉर्ज बुश पर भी इराक में एक पत्रकार ने जूता फेंका था।
बहुत साफ है कि कश्मीर के मौजूदा राजनीतिक हालात में नेशनल कांफ्रेंस को लेकर घाटी के भीतर असंतोष व्याप्त है। युवाओं के एक बड़े हिस्से को सामान्य स्वतंत्र जीवन जीने का शीघ्र कोई विकल्प चाहिए। यह विकल्प अगर उमर अब्दुल्ला सरकार नहीं मुहैया करा रही है, तो वे इसके जवाब में अलगाववादी धड़ों के साथ खुद को सहज महसूस करते हैं।
लगभग बीस साल बाद घाटी में इस तरह का दृश्य बन रहा है, जब सरकार के विरोध में उग्र और अंतहीन दिखने वाले प्रदर्शन हो रहे हैं। हुर्रियत के दोनों धड़े जोर देकर कह रहे हैं कि युवाओं का यह स्वत:स्फूर्त आंदोलन है जिसको वे केवल समर्थन दे रहे हैं।
पिछले एक साल में कश्मीर की राजनीति बेहद उठा-पटक भरे दौर से गुजरी है। शोपियां में दो युवतियों की बलात्कार के बाद हत्या के मामले पर जांच समितियों की परस्पर-विरोधी रिपोर्ट और सरकार द्वारा उस मामले पर नाटकीय तरीके से लिए गए फैसलों से आंदोलन शुरू हुआ।
बीते सप्ताह सईद फारुख बुखारी नामक एक 19 वर्षीय छात्र के कथित तौर पर पुलिसिया उत्पीड़न से मारे जाने के बाद हजारों लोग उसके अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने के लिए कफ्यरू को तोड़ कर निकल आए। पीडीपी अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती ने सईद की मौत के लिए सरकार को दोषी ठहराते हुए इस घटना की निंदा की। ऐसी प्रत्येक घटना के बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को लेकर असंतोष और भड़का है।
मीरवाइज उमर फारुख ने भारत सरकार को कश्मीर से सैन्य बल वापस बुलाने, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम खत्म करने और कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय मामला न मानते हुए इसमें कश्मीर को शामिल कर त्रिपक्षीय तरीके से हल किए जाने की अपील करने के साथ-साथ स्थानीय कश्मीरियों की भावना को समझने के लिए ‘कश्मीर की दीवारों पर लिखी इबारत’ को पढ़ने को कहा है।
कश्मीरी लोगों ने पिछले चुनाव में सहभागिता के जिस स्तर को दिखाते हुए 60 फीसदी से अधिक मतदान किया और उमर अब्दुल्ला की पार्टी को बहुमत के साथ विधानसभा में ले आए, उसके जवाब में उनके बरसों पुराने आत्मनिर्णय के अधिकार के संकट का खात्मा कहीं से भी होता नजर नहीं आया। जाहिर है, ऐसे में यहां की जनता को प्रतिरोध के रूप में पत्थर और जूते दिखते हैं, तो हर्ज क्या है?
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